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लाहौर की छतों से लेकर कपूरथला के शालीमार बाग तक, पंजाब में रचा-बसा है बसंत उत्सव

एक जमाना था जब बसंत पर आकाश में रंग-बिरंगी पतंगें ही नजर आती थीं। हर छत पर लोगों की महफिल होती और पतंगबाजी के मुकाबलों के साथ गिद्दा भंगड़ा पर्व में उमंग भर देते थे।

By Pankaj DwivediEdited By: Published: Sun, 10 Feb 2019 02:16 PM (IST)Updated: Sun, 10 Feb 2019 02:16 PM (IST)
लाहौर की छतों से लेकर कपूरथला के शालीमार बाग तक, पंजाब में रचा-बसा है बसंत उत्सव

जालंध [वंदना वालिया बाली]। यूं तो आपने ‘आया बसंत, पाला उड़ंत’, कहावत सुनी ही होगी पर आज हम बात करेंगे ‘आया बसंत, पतंगें उड़ंत’ की... मौसम की अंगड़ाई के साथ सर्दी कम हो कर खुशनुमा मौसम के आगमन पर पतंगबाजी की... विद्या, वाणी, संगीत व कला की देवी मां सरस्वती के अवतरण व अराधना का यह दिन पंजाब में सांस्कृतिक महत्व भी रखता है। खेतों में पीले सरसों के फूल जब प्रकृति की छटा को मनमोहक बनाते हैं। इसी वासंतिक खुमार में बसंत और पीला रंग एक-दूजे के पर्याय बन जाते हैं। बसंत पंचमी पर पीले वस्त्र पहनना और पीले चावल खाना परंपरा का हिस्सा हैं। तो क्यों न आपको आज ले चलें बसंत की एक याद गली में। लाहौर की छतों से लेकर कपूरथला के शालीमार बाग के पुराने नजारे के साथ आधुनिक बसंत भी हैं जहां...

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2-3 लाख रुपये के किराए पर मिलती थी छत
 

पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार अंजुम सलीमी कहते हैं, ‘लाहौर की गलियों में इन दिनों खूब रौनक है। पतंगबाजी के शौकीन बसंत की तैयारी जो कर रहे हैं। दुनिया भर में मशहूर रही है इस शहर की पतंगबाजी, जो लंबे अंतराल के बाद फिर शुरू होने जा रही है। विदेशों से भी लोग इस त्योहार का आनंद लेने लाहौर पहुंचते हैं। सांझे पंजाब की संस्कृति आज भी यहां दिखती है।

एक जमाना था कि बसंत पंचमी पर आकाश का नीला रंग कम और रंग-बिरंगी पतंगें ज्यादा नजर आती थीं। हर छत पर लोगों की महफिल होती और पतंगबाजी के मुकाबलों के साथ गिद्दा भंगड़ा भी पर्व में उमंग भर देते थे। विशेष तौर पर बड़े-बड़े कलाकारों को बुला कर महफिलों का आयोजन होता था। जहां कलाकार न बुलाए जा सकते, वहां डीजे पर पंजाबी गीतों की धूम रहती थी। चुंकि सारा आयोजन छत पर ही होता था, इसलिए जिन घरों की बड़ी छतें थी, वे 2-3 लाख रुपये प्रतिदिन के किराए पर भी ली जाती थीं। बसंत की सरकारी छुट्टी होने के कारण यहां लोग इस पर्व का खूब लुत्फ उठाते थे। छत पर बारबेक्यू तैयार कर लजीज व्यंजनों का मजा लोग उठाते थे। चावल का ‘जरदा’ खूब मेवों वाला सदियों से आज भी बनाया जाता है। लोग विशेषतौर पर पीले कपड़े सिलवाते रहे हैें इस दिन के लिए।


  पाकिस्तानी साहित्यकार अंजुम सलीमी, जीएस बब्बर और महाराजा कपूरथला के वंशज टिक्का शत्रुजीत सिंह।

बसंत के इस रंग में भंग पड़ा कुछ साल से शुरू हुई कैमिकल युक्त डोर आने से। प्लास्टिक से बनी इस ड्रैगन डोर से अनेक हादसे हुए, जिनमें लोग गंभीर रूप से घायल हुए। किसी के गले पर कट लगा तो किसी के चेहरे पर। इन्हीं के कारण 2009 में पतंगबाजी पर सरकार ने पाबंदी लगा दी। हालांकि पूरी तरह खेल तो बंद नहीं हुआ था पर पर्व की खुशियों पर ग्रहण महसूस होने लगा। अब इमरान खान की सरकार आने पर 10 साल बाद पुन: बसंत की रौनक लौटने की उम्मीद है। सामान्य डोर से पतंगबाजी करने की अनुमति लोगों को दी गई है। उत्साहित लोग त्योहार की तैयारियों में जुटे हैं।
 

102 साल पुराना है यह बसंत मेला


ऐतिहासिक शहर कपूरथला में 1917 में महाराजा जगतजीत सिंह द्वारा शुरू किए गए बसंत उत्सव भले ही कुछ वर्ष पहले अनियमित हो गया था लेकिन अब पुन: इसकी रौनक दिखने लगी है। एमएलए राणा गुरजीत के अनुसार गत वर्ष इस मेले को पुन: शुरू किया गया है ताकि हम नई पीढ़ी के लिए अपनी संस्कृति संजोय रखें।
महाराजा जगतजीत सिंह के वंशज टिक्का शत्रुजीत सिंह ने शालीमार बाग में लगने वाले करीब 102 साल पुराने मेले के बारे में अपनी यादों की पिटारी से अनेक खजाने साझा किए। उन्होंने कहा, ‘शालीमार बाग का वह मेला अद्भुत था। कपूरथला रियासत के नीले सफेद रंग के ध्वज के साथ सजे हुए हाथियों पर महाराजा की सवारी माल रोड व सदर बाजार से होती हुई जुलूस के रूप में बाग तक पहुंचती थी। राजसी वेशभूषा में आभूषणों से सुसज्जित महाराजा से मिलने सारा शहर उमड़ पड़ता था।

ऐतिहासिक तस्वीर- बसंत पंचमी के दिन हाथी पर सवार होकर आम जनता से मिलने जाते कपूरथला रियासत के महाराजा जगजीत सिंह जी।

बाग में लगने वाला वो मेला लोगों से मेल-मिलाप का एक जरिया था। आज की तरह कोई ब्लैक कैट कमांडोज़ की सुरक्षा की जरूरत नहीं थी तब। महाराज सभी लोगों से बड़े प्यार से मिलते उनकी समस्याएं सुनते। खुशियां बांटते। लोग बड़े प्रेम से उनके लिए पीले पकवान बना कर लाते। महाराज थोड़ा-थोड़ा सभी से चखते। शाम तक कहने लगते, ‘आज तो खा-खा कर हालत खराब हो गई।’ 40-50 हजार लोग, सभी सिर पर पीले रंग के साफे बांध कर मेले में शामिल होते थे। महिलाएं भी पीले रंग के पंजाबी वेशभूषा में ही रहती। कोई भी व्यक्ति पेंट कमीज में नहीं दिखता था। कहीं कोई भेदभाव नहीं था। हां, एक गर्व व खुशी जरूर रहती। विशेष पीले व्यंजन तैयार होते थे। मनोरंजन के लिए भंगड़ा-गिद्दा के साथ-साथ कुश्ती और पतंगबाजी के मुकाबले भी जरूर होते थे। विजेताओं को महाराज अपने हाथों से नगद पुरस्कार देते थे।’


आधुनिकता के साथ आए बदलाव के बारे में वह कहते हैं कि ‘आज हम अपनी पंजाबियत को, नैतिक मूल्य व रिवाजों को भूल रहे हैं। विदेशी आज भी अपनी परंपराओं को संभाले हुए हैं। उन पर गर्व करते हैं जबकि हमारी नई पीढ़ी उन्हें ‘ओल्ड फैशन’ कह कर नकार देती है।’

मोबाइल-लैपटॉप ने ‘कट ती’ पतंग वाली डोर

जालंधर के डीएवी कालेज में इतिहास के विभागाध्यक्ष रहे और अब कालेज के इतिहास पर पुस्तक लिख रहे जगदीश चंद्र जोशी कहते हैं कि ‘मेरा बचपन लाहौर में बीता है। वहां बसंत की रौनक अलग ही रहती थी। पतंगों के शौकीनों के लिए यह दिन खास रहता था। उन दिनों एक ओमनी बस चलती थी। उसके एक ड्राइवर का नाम था ‘गोला’। उसकी पतंगबाजी का कोई सानी न था। वह सुबह 8-9 बजे पतंग उड़ाना शुरू करता और कोई भी उसकी पतंग काट नहीं पाता था। वह अपनी पतंग पर 2, 5 या 10 रुपए का नोट चिपकाया करता था। इसलिए लोग उसकी पतंग काटने व लूटने को और भी ललायित रहते लेकिन गोला डोर पर ऐसा मावा लगाता था कि शाम तक किसी से वह कटती नहीं थी। मीलों तक उड़ जाती थी उसकी पतंग। शाम को वह खुद ही नीचे से अपनी पतंग की डोर काट देता। कटी हुई वह पतंग लूटने के लिए भी बच्चों की खूब दौड़ लगती। पतंग के पीछे दौड़ता हुआ कोई ढांगों (कांटों वाली झाड़ियां) पर गिरता तो कोई किसी से टकराता। अंत में पतंग पाने वाला खुद को बड़ा खुशनसीब समझता था। हर साल पतंगबाजी के चक्कर में 2-4 बच्चों के छतों से गिरने की खबर भी जरूर सुनते थे।

लाहौर कैंट के पास गुरु मांगट नाम का एक गांव था, जहां भव्य मेला लगता था। इसमें पतंगबाजी भी खूब होती थी। मेले में सभी पीले रंग के कपड़ों में सजे दिखते थे। आज के बच्चे और बड़े पतंगबाजी से दूर केवल अपने फोन व लैपटाप पर व्यस्त रहते हैं। लगता है पंजाबी लोक गीत ‘तेरी किन्ने कट ली पतंग वाली डोर’ का जवाब अब यही है, ‘मोबाइल-लैपटॉप ने कट लई पतंग वाली डोर’।’
 

आज भी मशहूर है अमृतसर की पतंगबाजी

विभाजन से पहले सांझे पंजाब में भी पतंगबाजी का गढ़ माझा ही था। आज भी बसंत में अमृतसर में खूब पतंगें दिखाई देती हैं। श्री छेहरटा साहिब गुरुद्वारे में इस अवसर पर मेला लगता है और उसके साथ लगते जाझगढ़ ग्राउंड में विभिन्न कार्यक्रमों के अलावा पतंगबाजी के मुकाबले भी खूब होते हैं। यह कहना है लेखक और नेशनल इंटीग्रेशन मल्टी पर्पस आर्टिस्ट एसोसिएशन के मुखी जीएस बब्बर का। वह बताते हैं कि यहां होने वाले निम्पा काइट फेस्टीवल में तरह-तरह की पतंगें ले कर लोग पहुंचते हैं। एक बार 1100 तिरंगों वाली एक पतंग ने सभी को दंग कर दिया था। पूरी तरह ध्यान केंद्रित कर लोग जिस उत्साह से इसमें भाग लेते हैं वह देखते ही बनता है।

सूरत नई, सीरत वही

पिछले दिनों बठिंडा में हुए काइट्स फेस्टीवल में आधुनिक पतंगें देखने को मिलीं। इन पतंगों के आकार व प्रकार भले ही नए थे लेकिन इन्हें उड़ाने के लिए जोश वही पुराना था। अहमदाबाद से विशेष तौर पर आए मेहुल पाठक ने विशाल तिरंगी पतंग आसमान में उड़ाने की कोशिश की। साथ ही कार्टून कैरेक्टरों व ड्रैगन के आकार की पतंगों को उड़ा कर भी अलग तरह की पतंगबाजी दिखाई गई। साथ ही 10-10 स्कूली बच्चों की विभिन्न टीमें बनाई गईं। इनमें से 22 बच्चों का चयन किया गया जो बसंत पंचमी को होने वाले एक फाइनल मुकाबले में भाग लेंगें। मेले की विशेषता यह रही कि यहां चाइनीज डोर का इस्तेमाल वर्जित था। पंजाब में पहली बार हुए इस आधुनिक काइट्स फेस्टीवल ने सदियों से चली आ रही पतंगबाजी की परंपरा को एक नया आयाम दिया है।

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