हम अपने वतन लौटेंगे हाजी साहब... फिल्म शिकारा से मिली कश्मीरी पंडितों को नई उम्मीद
19 जनवरी 1990 को कश्मीरी पंडितों को रातो-रात बेघर होना पड़ा था। फिल्म शिकारा ने लाखों कश्मीरी पंडितों की वतन वापसी की उम्मीद को जगा दिया है।
जालंधर [मनोज त्रिपाठी]। मम्मा ये शिकारा क्या है। कौन हैं यह लोग घर क्यों जला रहे हैं। सेब कश्मीर में होते हैं। कितनी ऊंची, ऊंची पहाडिय़ां हैं, कितनी हरियाली और पेड़ हैं। शिकारा फिल्म देख रहे एक परिवार के साथ आए छोटे बच्चे के सवालों के जवाब शायद परिजनों ने उसे कभी नहीं दिए होंगे। या बच्चे के परिजन अपने दर्द व जख्मों को कुरेदना नहीं चाह रहे होंगे। 19 जनवरी 1990 को 30 साल पहले कश्मीरी पंडितों को रातो-रात घर से बेघर होकर कश्मीर छोडऩा पड़ा। कश्मीर के लगातार सुधर रहे हालात के बीच आई फिल्म शिकारा में कश्मीरी पंडित की लव स्टोरी और उस दौर के दर्द को पेश करके लाखों कश्मीरी पंडितों की वतन वापसी (घर वापसी) की उम्मीद को जगा दिया है। फिल्म के एक डायलाग ..हम अपने वतन लौटेंगे हाजी साहब... ने इस उम्मीद को और हवा दी है।
बड़े पर्दे पर पहली बार कश्मीरी पंडितों के विस्थापित होने की वजह और उसके बाद के दर्द को लोग महसूस कर पा रहे हैं। जालंधर में रह रहे सैकड़ों कश्मीरी पंडितों के परिवार फिल्म को देख भी रहे हैं और जख्म हरे करके घर वापसी की नई उम्मीदों की किरण लेकर लौट रहे हैं। फिल्म की अभिनेत्री सादिया व अभिनेता आदिल खान ने कश्मीरी पंडितों के दर्द को बाखूबी पेश किया है। 30 साल के अंतराल में कश्मीर भी बदला और कश्मीरी लोग भी। मल्टीप्लेक्स में फिल्म देख रहे 12 साल के बच्चे के सवाल बता रहे थे कि किस प्रकार कश्मीरी पंडि़तों की मजबूरी व कश्मीर के खराब हालातों ने एक जनरेशन की दूरी बना ली है।
कश्मीर से निकलने के बाद जिन कश्मीरी पंडितों के आशियानों पर कब्जे कर लिए गए, वह आज भी राख में तब्दील होकर वादियों में ही वक्त फना करने की उम्मीदें लिए बैठे हैं। फिल्म के गीत ऐ वादी, शहजादी कैसी हो, बिन तेरे खाली हूं मैं, क्या तुम भी वैसी हो..ने जात-पात के नाम पर कत्लेआम के नतीजों को बाखूबी पेश किया है। वादियों से विस्थापित होकर शरणार्थी कैंपों में आने व वहां से भी आगे पलायन करने के बाद कैसे कश्मीरी पंडितों की जिंदगी से कश्मीर के राग, कश्मीर की धुन और कश्मीर के वाद्ययंत्र अलग होते गए। उनके स्थान पर डीजे ने शादियों में घुसपैठ कर ली, वादी की मिठास को कश्मीरी पंडितों से दूर कर दिया।
कश्मीरी वाद्य यंत्र सुरना, स्कालिंग, तुंबक्नारी, रन सिंघा, धारा, नूट, किंग व रबाब के संगीत का लुफ्त एक जनरेशन ले ही नहीं पाई। अच्छी फिल्म के बीच छोटे बच्चे के सवालों ने जेहन में यह सवाल जरूर पैदा किया कि क्या फिल्म हकीकत से पूरी तरह रूबरू है या फिर हकीकत को फिल्मी चासनी में लपेट कर बड़े पर्दे के सहारे जख्मों को कुरेदने की कवायद है।
जख्मों पर मरहम लगाने की बजाय फिल्म ने उन्हें ताजा कर दिया
फिल्म को लेकर कश्मीरी पंडित रमेश वारिको, विनय कुमार, रेयांश, कमलेश ने कहा कि कश्मीरी पंडितों पर 19 व 20 जनवरी 1990 में किस कदर कहर बरपाया गया था, इसे तो दिखाया ही नहीं गया। दानिश, गीतांजलि, दीपिका, पंकज, संगीता, सिद्धांत टरूको व ईशांत तथा संजेश कहते हैं कि फिल्म कश्मीरी पंडितों के साथ हुए कत्लेआम की बजाय लव स्टोरी पर केंद्रित कर दी गई है।
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