ये है जालंधरः पढ़े-लिखे मुस्लिम युवकों ने वर्ष 1606 में बसाई थी बस्ती दानिशमंदा Jalandhar News
पहले बस्ती छोटी थी। फिर युवकों ने मदरसे बनाकर नई पीढ़ी को दीनी दर्स के साथ साथ अरबी उर्दू फारसी की शिक्षा देनी आरंभ कर दी तो बहुत से लोग उन्हें संजीदगी से लेने लगे।
जालंधर, जेएनएन। इस्लाम के कट्टरवादी लोगों की रस्मों-रिवाज से तंग आकर कुछ पढ़े-लिखे युवकों ने एक गांव में अलग जाकर रहना उचित समझा। पहले पहल यह गांव छोटा था, लेकिन धीरे-धीरे कुछ अन्य परिवार भी आकर रहने लगे। उन युवकों ने मदरसे बनाकर नई पीढ़ी को दीनी दर्स के साथ साथ अरबी, उर्दू, फारसी की शिक्षा देनी आरंभ कर दी तो बहुत से लोग उन्हें संजीदगी से लेने लगे। धीरे-धीरे कई और शिक्षक और जागरूक लोग यहीं आकर रहने लगे। इससे इस बस्ती का नाम बुद्धिमानों की बस्ती के तौर पर पुकारा जाने लगा।
दानिशमंद उन लोगों को कहा जाता था, जो दीन-दुनिया के बारे में बहुत गंभीरता से सोचते और समझते थे। एक समय ऐसा भी आया जब दो पक्षों के विवादों का निर्णय करने से पहले बस्ती दानिशमंदां के मुखिया शेख अंसारी को ही बीच में आकर फैसला करना पड़ता था। सभी पक्ष इसको स्वीकार कर लेते थे। बस्ती की स्थापना सन 1606 में हुई मानी जाती है।
यह बस्ती अन्य बस्तियों से इस लिहाज से सुंदर दिखाई देती रही, क्योकि यहां पर रहने वाले लोग साफ-सफाई रखते थे। जब भी कहीं निकाह के लिए मुल्ला- मौलवी की आवश्यकता होती तो यहीं के लोग यह रस्म निभाने के लिए बुलाए जाते थे। प्रसिद्ध फिल्म तारिका बेगम पारा भी यहीं की रहने वाली थीं। इस स्थान के कई लोग पाकिस्तान में जाकर भी सरकार के अच्छे पदों पर आसीन हुए। जस्टिस खलील-उल-रहमान पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट के जज रहे हैं। वह किसान परिवार से थे। पाकिस्तान में कई बड़े पदों पर आसीन लोग इस बात पर गर्व किया करते थे कि वह बस्ती दानिशमंदां के किसान परिवार से हैं।
दारा शिकोह आया था बस्ती शाह कुली में
शाह कुली इस्लाम धर्म के सूफी फकीरों में बहुत सम्मान रखने वाले व्यक्ति थे। जब गेटों का निर्माण हुआ तो एक अश्व व्यापारी के साथ एक फकीर भी अफगानिस्तान से हिंदुस्तान आया, जो पहले पहल नगर के बाहर आकर बैठा रहा। जब मुरीदों की संख्या बढऩे लगी, तब उसे एक बस्ती में जाकर रहना ही उचित लगा। पहले पहल यह बस्ती सपाट मैदान में दो-चार घरों तक ही सीमित थी। धीरे-धीरे जब फकीर शाह कुली वहां रहने लगे तो उनके हुजरे पर मुरीदों के जमघट लगने शुरू हो गए थे। वहां दीन और दुनिया पर चर्चाएं होती रहती थीं। कव्वालियां गाने वाले लोग पीर शाह कुली के पास अपने फन का मुजाहिरा करने आते थे।
इस बस्ती का निर्माण शाहजहां के शासन काल में हुआ माना जाता है क्योंकि तब तक मुगल शासन के पैर बहुत जम चुके थे। शाहजहां जब सन 1628 में सिंहासन पर विराजमान हुआ तब उसने अपने कुछ मुसाहिबों को शाह कुली से आशीर्वाद लेने के लिए भेजा था। एक किंवदंती के अनुसार शाहजहां ने इस बस्ती को सभी प्रकार की सुविधाएं देने का आदेश दिया था। कहा जाता है कि शाहजहां का बड़ा बेटा दाराशिकोह जो सर्वधर्म-समभाव में विश्वास रखता था, वह भी एक बार यहां आया था। अंग्रेज शासकों ने भी मुस्लिम समुदाय पर आधारित इस बस्ती के पुनर्निर्माण के लिए प्रयास किया, परंतु वैसी बात न बन सकी। समय की आंधी इसका अस्तित्व समाप्त कर गई। अब सिर्फ नाम ही रह गया है।
(प्रस्तुतिः दीपक जालंधरी - लेखक शहर की जानी-मानी शख्सियत और इतिहास के जानकार हैं)
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