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सक्षम बन अक्षमता को दी मात, पंजाब की ये शख्सियतें बनी हौसले की मिसाल

इन्होंने अपनी शारीरिक अक्षमताओं को धता बताते हुए ऐसी मिसाल कायम की है कि राष्ट्रपति से आज विश्व दिव्यांग दिवस पर राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर रही हैं।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Mon, 03 Dec 2018 06:32 PM (IST)Updated: Mon, 03 Dec 2018 06:32 PM (IST)
सक्षम बन अक्षमता को दी मात, पंजाब की ये शख्सियतें बनी हौसले की मिसाल

जालंधर [वंदना वालिया बाली]। कौन कहता है कि आसमां में सुराख हो नहीं सकता, एक पत्थर को तबियत से उछालो यारों... ये शब्द इन सक्षम शख्सीयतों पर सटीक बैठते हैैं जिन्होंने अपनी शारीरिक अक्षमताओं को धता बताते हुए ऐसी मिसाल कायम की है कि राष्ट्रपति से आज विश्व दिव्यांग दिवस पर राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर रही हैं। पंजाब से तीन महिलाओं को इस बार सम्मानित किया जा रहा है। आइए आपको इनसे रूबरू करवाएं...

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कलम व सेवा की धनी इंद्रजीत नंदन

'अकसर लोग मंगदे ने दुआ कि शुक्र है पैर सलामत ने औखे पग चक्कण लई

पर मैैं कदे नी मंगी पैरां दी खैर

की करोगे पैरां दा जे पद ही मुक गए

बाटां ही रुस गइयां

सफर ही दिशा हीन हो गए

मंजिल ही न रही

मैं मंगदी हां सलामती

सोचां दी, विचारां दी, कलमां दी

कि शुक्र है कुज तां है भटकेइंसाना नूं रस्ता दिखाण लई।'

ये शब्द हैं इंद्रजीत नंदन के। वह पंजाबी साहित्य की एकमात्र कवयित्री हैं, जिन्हें 2008 में संस्कृति पुरस्कार से सम्मनित किया गया है। यह पुरस्कार 38 साल में पहली बार किसी पंजाबी को मिला है। अपनी कलम से दिलों को जीतने वाली शब्दों की इस धनी के पास हिम्मत व इच्छाशक्ति की भी अपार दौलत है। वह बचपन से पोलियोग्रस्त है लेकिन उसने इस अक्षमता को कभी सफलता की राह का रोड़ा नहीं बनने दिया।

जीवन संघर्ष

23 मार्च 1974 को होशियारपुर के सरदार गुरचरण सिंह व कुंदन कौर के घर जन्मी इंद्रजीत बताती हैं, 'मैं ढाई साल की थी जब पोलियो ने मेरे चलने की क्षमता छीन ली। मैं खुशनसीब थी कि मेरे परिवार ने मुझे शारीरिक चुनौतियों के बावजूद पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया। बचपन में तो मैं ठीक से बोल भी नहीं पाती थी लेकिन मेरे दादा जी ने देसी इलाज व अभ्यास से मेरी वह अक्षमता दूर कर दी। बस्सी किकरां स्कूल में कक्षा पांच में थी तो टांगों के लिए एक सर्जरी दिसंबर में हुई जिस कारण पैर के नाखून से ले कर गले तक प्लस्तर लगा था। दो माह बिस्तर पर लेटे हुए ही पढ़ाई की और मार्च में जब परीक्षाएं दी तो 200 में से 177 अंक ले कर मैं ब्लाक में फर्स्ट आई।''

बकौल इंद्रजीत, ''उस नतीजे ने पढ़ाई के लिए ऐसा प्रोत्साहित किया कि फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। हालांकि मैं मेडिकल की पढ़ाई करना चाहती थी लेकिन कालेज में लैब बहुत दूर होने के कारण मुझे एसडी कालेज से 1994 में बीकॉम की पढ़ाई करनी पड़ी। पोस्ट ग्रेजुएशन मैंने इकोनोमिक्स में की। वहां मुझे अकांउट्स सबजेक्ट काफी मुश्किल लगता था लेकिन एक सहपाठी ऋषि गर्ग ने मुझे अकाउंट्स सिखाया और होशियारपुर की कई एनजीओज़ तथा किसानों के अकांउट्स का काम मैं करने लगी।''

इंद्रजीत का कहना है ''1998 में मेरे पिता ने प्रीमैच्योर रिटायमेंट ले ली ताकि वह मेरा एक और आप्रेशन करवा कर मेरी देखभाल कर सकें। उन्होंने विशाखापïट्टनम से मेरा इलाज करवाया जिससे मेरे कैलिपर्स, जो कमर से लगाती थी, घुटनों तक के रह गए। जीवन कुछ आसान हुआ और विभिन्न एनजीओज़ के संपर्क में आयी तो रसायन मुक्त खेती के प्रचार के लिए भी काम करने लगी। एक सेल्फ हेल्प ग्रुप 'अपना' भी शुरू किया जिसमें करीब 12 महिलाएं सीधे तौर पर मेरे साथ जुड़ी हैं और हम करीब 500 महिलाओं को माइक्रो फाइनैंस के जरिए आत्मनिर्भर बना चुके हैं।'

साहित्यिक सफर

इंद्रजीत नंदन की छह पुस्तकेंप्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें 2002 में आयी 'दिसहद्देयां दे पार', 'चुप्प दे रंग' (2005),

'शहीद भगत सिंह अथक जीवन गाथा' (2008), 'कविता दे मार्फत' (2009), 'जोगिंदर बाहरला जीवन गाथा' (2006) तथा 'यशोदरा' (2015) शामिल हैं।

सम्मान

प्रतिष्ठित संस्कृति सम्मान के अलावा 2010 में वह 'भास्कर वुमन आफ द इयर', 2012 में मदर टेरेसा अवार्ड, 2013 में विवेकानंद स्टेट अवार्ड आफ एक्सीलेंस, 2014 में पंजाबी साहित्य एकाडमी अवार्ड प्राप्त कर चुकी हैं।

और भी हैं चुनौतियां

इंद्रजीत की चुनौतियां पहले ही कम न थी कि मां का एक्सीडेंट परिवार पर और मुसीबतों का पहाड़ ले कर आया। गंभीर घायल होने के कारण उसकी मां की एक टांग काटनी पड़ी। परिवार ने उस कठिन घड़ी में भी सकारात्मकता का दामन न छोड़ा। घर के काम के लिए जो भी उनके घर आया उसे वेतन के साथ शिक्षा का उपहार भी मिला। नंदन बताती हैं कि मैं मां को यही कहती हूं कि यदि यह हादसा न होता तो न ये लड़कियां हमारे संपर्क में आतीं और न आगे पढ़ती। आज भी हमारे घर पर काम जो लड़की काम कर रही है, उसका स्कूल नौंवी छूट गया था पर आज वह बीए सेकेंड इयर में है। मेरा मानना है कि जीवन का ऐसा कठिन इम्तिहान ईश्वर उसी का लेता है, जो इसे दे सके।'

डॉ. मोना गोयल जगा रही शिक्षा के दीप

नेत्र ज्योति खोने के बावजूद लॉ जैसे मुश्किल विषय में पीएचडी की पढ़ाई करना और बतौर एसिस्टेंट प्रोफेसर युवाओं को इसकी उच्च शिक्षा देना आसान काम नहीं है। अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से अक्षमता को हरा कर जालंधर की डॉ. मोना गोयल (46) लद्देवाली स्थित जीएनडीयू के रीजनल कैंपस के लॉ विभाग में 2013 से ऐसा ही कर रही हैं। भले ही वह देख नहीं सकती लेकिन उनकी कक्षा में विद्यार्थी पूरी गंभीरता से पढ़ाई करते हैं। मेरे लेक्चर को तवज्जो देते हैं और मुझे सम्मान।

2016 में दिव्यांगों के समाजिक व कानूनी अधिकारों के बारे में रिसर्च कर पीएचडी की डिग्री हासिल करने वाली डॉ. मोना गोयल बताती हैं कि '1996 तक मैं देख पाती थीं और महाराष्ट्र के एक कालेज में डेंटिस्ट्री की पढ़ाई कर रही थी। उस पढ़ाई का अंतिम साल था लेकिन तब मुझे कुछ ही समय के अंतराल में कई बार मलेरिया हुआ। शायद उसी की दवाई की ओवरडोज़ के कारण मेरी आंखों के मसल्स में समस्या आ गई। मेरी देखने की शक्ति कम हुई और फिर चली गई। जैसे-तैसे डेंटिस्ट्री तो पूरी कर ली लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। मेरी समस्या को देखते हुए परिवार ने मुझे इंगलैंड मेरे चाचा के पास भेज दिया। वहां के सकारात्मक माहौल ने मुझे डिप्रेशन में नहीं जाने दिया बल्कि अक्षमता को जीवन की चुनौती मान कर इससे लडऩा सिखाया। वहां के रोयल नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड से मैंने अपनी इस शारीरिक अक्षमता को सक्षमता में बदला।

विदेश में लोग इसे केवल जीवन का एक फेज मानते हैैं और भारत में समाज दिव्यांगता को किसी अभिशाप की तहर लेता है जो बहुत गलत है। यहां सामान्य लोगों के रवैये को बदलने की जरूरत है। यहां लौटी तो लुधियाना के वोकेशनल रिहैबिलिटेशन ट्रेनिंग सेंटर से मैंने ब्रेल सीखी और शॉर्टहैंड में डिप्लोमा किया। फिर चंडीगढ़ की पंजाब यूनिवर्सिटी में लॉ विभाग में दाखिला लेने पहुंची तो एडमिशन से पहले ही क्लर्कों ने ही यह कह कर हत्तोत्साहित किया कि बिना देखे कैसे करोगे पढ़ाई। लेकिन वहां मेरे टीचर्स व दोस्तों ने पूरा सहयोग दिया और एलएलबी के बाद जालंधर आ कर मैैंने जीएनडीयू के रीजनल कैंपस से ही एलएलएम की।

यहां डॉ. आरके मरवाहा ने मुझे पूरा सहयोग भी दिया और पीएचडी के लिए प्रोत्साहित किया। 2011 में मैंने पीएचडी शुरू की 2013 में कालेज में ही मेरी नौकरी लग गई और 2016 में मुझे डाक्ट्रेट की डिग्र्री मिली। आज मैं दिव्यांगों के लिए काम करने वाले संस्थाओं के साथ भी जुड़ी हूं और उनके अधिकारों के बारे में उन्हे जागरूक करने का काम कर रही हूं।'

स्व. कृष्ण लाल गोयल व अंजना गोयल की बेटी और कार्डियेक सर्जन डॉ. समीर गोयल की बहन व एनेस्थेटिक डॉ. वंदना गोयल की ननद हैैं डॉ. मोना गोयल। वह बताती हैैं कि आज टेक्नोलोजी की मदद से अपने फोन के टाकिंग सोफ्टवेयर से सभी लेक्चर भी तैयार कर लेती हैं। उन्होंने लॉ की सभी किताबें भी उन्होंने डाउनलोड कर रखी हैं।

उनका कहना है कि 2011 के सेंसस के अनुसार देश में 26.2 मिलियन दिव्यांग हैं। यह एक बहुत बड़ा वोट बैंक है। लेकिन इस ओर अभी सरकारों का ध्यान ज्यादा गया नहीं है। भले ही स्कीमें घोषित हो जाती हैैं लेकिन उन पर अमल न के बराबर होता है। न तो इमारतों में विशेष रैैंप बनाए जाते हैैं और न विशेष वाश रूम जबकि विदेशों में दिव्यांगों के प्रति सरकार ही नहीं सभी नागरिक भी संवेदनशील हैैं।

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