पराली से खुशहाली, पैसे के साथ-साथ बन रही रोजगार का जरिया
जो किसान पराली को एक समस्या मानकर उसे जलाकर छुटकारा पाने की सोचते थे उनके लिए यही वेस्ट अतिरिक्त धन कमाने का अवसर साबित हो रहा है।
जालंधर। बीते कुछ सालों से हर बार सर्दियों की शुरुआत होते ही वातावरण में बढ़ती प्रदूषण की परत को लेकर चर्चा तेज हो जाती है। तमाम बुद्धिजीवी सालभर फैलने वाले प्रदूषण का सारा जिम्मा पराली जलाने पर डाल देते हैं। वहीं कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इसी पराली से सकारात्मक बदलाव ला रहे हैं। वंदना वालिया बाली की खास रिपोर्ट...
खेतों में पराली जलाने से फैलने वाले प्रदूषण से हर साल दिल्ली-एनसीआर व उत्तर भारत में हर कोई परेशान हो जाता है। धुएं के कारण फैली धुंध एक ओर जहां कई दुर्घटनाओं का कारण बनती है, वहीं बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के लिए सांस लेने में तकलीफ का कारण बनती है। ऐसे में इस धुंध को हटा आशा की किरणें बिखेर रहे हैं कुछ लोग, जो इसी पराली से खुशहाली का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।
वे न केवल आम जनता को प्रदूषण व बीमारियों से बचा रहे हैं बल्कि पर्यावरण संरक्षण भी कर रहे हैैं। सबसे बड़ी बात यह है कि जो किसान पराली को एक समस्या मानकर उसे जलाकर छुटकारा पाने की सोचते थे, उनके लिए यही वेस्ट अतिरिक्त धन कमाने का अवसर साबित हो रहा है और साथ ही अनेक लोगों को रोजगार भी उपलब्ध हो रहा है।
पराली से ऊर्जा उत्पादन
एक स्टार्टअप के तहत सुखमीत सिंह ने पराली को एक खास प्रक्रिया से गुजारकर उससे कारखानों में जलाने के लिए इस्तेमाल योग्य ‘पैलेट्स’ (लकड़ियों या कोयले के छोटे टुकड़े के समान) बनाने का काम शुरू किया। अब तक उनके इस प्रयास से 1,950 एकड़ की 3,900 टन पराली जलने से रुक चुकी है। साथ ही वे हवा को कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड के अलावा पराली के नन्हें-नन्हें कण तथा राख की भारी मात्रा के कारण प्रदूषित होने से रोकने में सफल रहे हैं। इसमें उनके साथ 195 किसान जुड़े हैं।
‘ए टू पी सॉल्यूशन’ यानी ‘एग्रीकल्चर टू पावर’ के संस्थापक सुखमीत सिंह के अनुसार, ‘हर साल देश में करीब 55 करोड़ टन पराली होती है। पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में इसकी सबसे ज्यादा मात्रा है। किसान इसे जलाते हैं ताकि वे खेतों को जल्द से जल्द साफ कर नई फसल बो सकें। उनका मानना है कि इसे जलाने से कीट तथा खरपतवार का भी नाश हो जाता है, लेकिन वे यह नहीं जानते कि इसे जलाने से नुकसान भी उतना ही होता है।
पराली जलाने पर मिट्टी के पोषक तत्व भी नष्ट हो जाते हैं। धुएं से पर्यावरण में जहरीली गैसें घुल जाती हैैं जो ‘स्मॉग’ यानी धुएं वाली धुंध का कारण बनती है और साथ ही लोगों की श्वसन संबंधी परेशानियों का कारण भी। इससे आग फैलने व अन्य खेतों या संपत्ति को नुकसान पहुंचने की संभावना भी बनी रहती है और साथ ही मिट्टी में मौजूद फायदेमंद जीवाणु भी मर जाते हैं।’
इन सभी से बचाव के लिए ‘ए टू पी’ ने एक ओर किसानों को जागरूक किया है वहीं दूसरी ओर कल-कारखानों से संपर्क कर पराली से बने विशेष ईंधन के इस्तेमाल के लिए उन्हें प्रेरित किया है। इस प्रकार दोनों के बीच ये सेतु का काम कर रहे हैं। पराली से तैयार इस ईंधन के इस्तेमाल से एक ओर जहां लकड़ी तथा कोयले जैसे ईंधन की बचत होती है, वहीं पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल किए जाने के साथ ही पैलेट्स और फर्नीचर के लिए बोर्ड भी बनाए जाते हैं।
कम मेहनत में ज्यादा फायदा
प्लास्टिक के डिस्पोजेबल बर्तनों पर अब बैन लग चुका है और थर्माकोल भी सेहत व पर्यावरण के लिए अच्छा नहीं है। इनके विकल्प के रूप में दिल्ली के आइआइटी के विद्यार्थियों ने गत वर्ष पराली के इस्तेमाल से डिस्पोजेबल बर्तन बनाए। इन्होंने अपने कॉलेज के एक प्रोजेक्ट के अधीन पराली से कुछ सामान बनाया लेकिन बाद में उसे एक स्टार्टअप की तरह ‘क्रिया लैब्स’ के नाम से स्थापित किया। इस स्टार्टअप के तीन डायरेक्टर थे- अंकुर कुमार, कनिका प्रजापत और प्राचीर दत्ता।
अंकुर बताते हैं, ‘पढ़ाई के दौरान हम देख रहे थे कि प्रतिवर्ष पंजाब व हरियाणा में करीब 20 मिलियन टन पराली जलाई जाती थी, जिससे 2017 में ही पंजाब के ग्रामीण इलाकों में करीब 40 हजार आगजनी के मामले सामने आए। इससे दिल्ली-एनसीआर में रह रहे 2.5 करोड़ लोगों का प्रदूषण के कारण दम घुट रहा था इसलिए हमने इस समस्या का हल निकालने के लिए पराली का कुछ सकारात्मक इस्तेमाल करने की ठानी। हमने इसके गूदे से अनेक उत्पाद बनाए। इनमें डिस्पोजेबल बर्तन प्रमुख रहे।
इनके अलावा पराली से बेहतरीन गत्ता बनाया जा सकता है। हम गत्ता बनाकर उससे फाइल फोल्डर, मिठाई के डिब्बे व बोर्ड से बनने वाले अन्य सामान बनाने में जुटे हैं। अब हमारी योजना पराली पैदा करने वाले किसानों के पास जाकर छोटे यूनिट वहीं सेट करके अपनी तकनीक द्वारा पराली का पल्प तैयार करने की है, ताकि उसकी ढुलाई व लंबी दूरी तय कर फैक्ट्री तक पहुंचाने में जो मेहनत व लागत आती है वह बचाई जा सके।
पेपर री-साइकिल करने वाली फैक्ट्रियां भी इसमें मदद कर सकती हैं। इस प्रकार किसानों से पराली खरीदी जाएगी और उसे ज्यादा दूर पहुंचाने की मेहनत भी उन्हें नहीं उठानी पड़ेगी, इससे वे इसके सही इस्तेमाल के लिए प्रेरित होंगे। मुझे लगता है कि पहले मार्केट में पराली की डिमांड नहीं थी इस कारण किसान उसे जला देते थ। चूंकि अब इसके लिए उन्हें पैसे मिलेंगे तो वे इसे क्यों जलाएंगे!’ अंकुर किसानों से तीन रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से पराली खरीदते हैं।
आम के आम गुठलियों के दाम
फाजिल्का, पंजाब के इंजीनियर संजीव नागपाल ने चार साल पहले ही पराली के वैकल्पिक इस्तेमाल की राह खोज ली थी। उन्होंने पराली से बायोगैस बनानी शुरू की और साथ ही वे इससे उत्तम किस्म की जैविक खाद भी बना रहे हैं। उनका दावा है कि केवल पराली से बायोगैस बनाने का काम विश्व में सबसे पहले उनकी कंपनी ‘संपूर्ण एग्री वेंचर्स प्राइवेट लिमिटेड’ ने शुरू किया था। आज वे प्रतिदिन 20 टन पराली से पांच हजार क्यूबिक मीटर गैस तथा 10 टन जैविक खाद का उत्पादन कर रहे हैं।
इस खाद की विशेषता है कि इसमें सिलिका की मात्रा ज्यादा होती है जो पौधों को मिट्टी में मौजूद हानिकारक आर्सेनिक तत्व सोखने नहीं देती। इस तकनीक से बनी बायोगैस को सीएनजी के विकल्प के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। संजीव बताते हैं, ‘पराली के ऐसे इस्तेमाल से ईंधन के साथ-साथ जैविक खाद भी मिलना आम के आमगुठलियों के दाम वाली बात है, क्योंकि इस प्रकार से धान के पौधे का कोई भी हिस्सा व्यर्थ नहीं जा रहा।’
पराली से बन रहीं दरियां
लुधियाना स्थित पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ कम्युनिटी साइंस के डीन डॉ. संदीप बैंस के अनुसार, उनके विभाग द्वारा पराली से दरियां बनाने की विधि विकसित की गई है। डॉ. बैंस के साथ असिस्टेंट साइंटिस्ट राजदीप कौर तथा रिसर्च एसोसिएट मनीषा सेठी बताती हैं, ‘इस प्रयोग में बुनी हुई दरियां तथा केवल प्रेशर से तैयार की गई दरियां हैं। बुनी हुई दरी में सूती धागा तथा तकनीक का प्रयोग कर पराली से निकाला गया फाइबर इस्तेमाल किया गया है।
बुनी गई दरियां जहां सामान्य दरी के आकार की हैं और उन्हें घरों में इस्तेमाल किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर केवल प्रेशर से प्रोसेस कर बनाई गई दरी छोटे आकार की रहती है और उसे मल्च मैट के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इनसे एक ओर मिट्टी के पोषक तत्वों में वृद्धि होती है, तो वहीं दूसरी ओर जमीन की नमी बनी रहती है और इस कारण पौधे को सिंचाई की बहुत कम जरूरत पड़ती है। इन्हें समय-समय पर उठाकर देखा जा सकता है कि खरपतवार तो नहीं उग आई।’
शत प्रतिशत हो सही इस्तेमाल
पंजाब को ‘अपनी मंडी’ का कांसेप्ट देने वाले पठानकोट के ब्लॉक एग्रीकल्चर ऑफिसर डॉ. अमरीक सिंह के अनुसार, ‘वैसे तो पराली का 95 प्रतिशत अब भी पशुओं के चारे के लिए काम में लाया जाता है लेकिन शेष पांच प्रतिशत जला दिया जाता है। यदि इसे भी पशु चारे के रूप में ही इस्तेमाल कर लिया जाए तो किसानों को विशेष प्रयास करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। किसान जिस पराली को जलाते हैं उसे ही बेचकर प्रति एकड़ करीब 2,500 रुपए कमाई कर सकते हैं।’
किसानों का भी है नुकसान
पराली की समस्या तकनीक के विकास का दुष्परिणाम है क्योंकि जब हार्वेस्टर मशीन नहीं थी तो किसान फसल को पूरा काटते थे लेकिन अब हार्वेस्टर से कटाई के कारण ऐसा नहीं किया जा रहा है। बचे अवशेषों को जलाने से उड़ता हुआ धुंआ स्मॉग का कारण बनता है। ऐसा नहीं है कि पराली जलाने से किसानों का नुकसान नहीं होता। पराली जलाने से खेत की मिटटी में पाया जाने वाला किसानों का दोस्त केंचुआ और राइजोबिया बैक्टीरिया भी मर जाता है, जिससे मिट्टी में प्राकृतिक तौर से नाइट्रोजन व हवा नहीं पहुंच पाती।
ये भी हैं उपाय
- इस समस्या का सबसे बड़ा समाधान इस बात में है कि फसल पूरी तरह से काटी जाए।
- पराली का इस्तेमाल सीट बनाने में किया जा सकता है।
- ऐसी मशीनें हैं जो फसल अवशेषों को बड़े-बड़े बंडलों में बांध सकतीं है जिनको बाद में विद्युत उत्पादन के लिए थर्मल प्लाटों को बेचकर आमदनी की जा सकती है।
- गड्ढों में पानी भरकर इसमें पराली गलाने से कंपोस्ट खाद तैयार कर सकते हैं।
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