158 वर्षों की परंपरा रहेगी बरकरार, कोविड के चलते रौनक का इंतजार
फतेहगढ़ साहिब ऐतिहासिक गांव चनार्थल कलां का दशहरा पर्व पंजाब भर में मशहूर है।
धरमिदर सिंह, फतेहगढ़ साहिब
ऐतिहासिक गांव चनार्थल कलां का दशहरा पर्व पंजाब भर में मशहूर है। इस गांव में दशमी के दिन नहीं, बल्कि एकादशी पर रावण दहन किया जाता है। कोविड-19 के चलते इस बार गांव में 158 वर्षो से चली आ रही परंपरा तो बरकरार रहेगी, लेकिन सीमित किए गए दशहरा पर्व के कारण गांव में रौनक नहीं है। हर वर्ष कराए जाने वाले दो विभिन्न टूर्नामेंट भी नहीं हो रहे हैं। करीब सात हजार की आबादी वाले इस गांव के दशहरे की अलग पहचान और मान्यता है। कोविड से पहले गांव में दशहरा मनाने की तैयारियां सवा महीने पहले शुरू कर दी जाती थीं। इस बार गांव की श्री रामलीला कमेटी ने श्री हनुमान जी के झंडा मार्च से इसकी शुरुआत करते हुए हनुमान मंदिर में झंडा लगा दिया था। लेकिन पहले की तरह तैयारियां एहतियात के तौर पर नहीं की गई। गांव का दशहरा मेला चार दिनों तक चलता था। अष्टमी के दिन इसकी शुरुआत होती थी। इन दिनों गांव में रामलीला हो रही है। वहां पर भी कम से कम लोगों को आने की अपील की जाती है। सोशल मीडिया पर ही रामलीला लाइव दिखाई जाती है। गांव में जिस जगह पर रावण दहन होता है, वहां चौक में 158 वर्षों से ही रावण का सीमेंट का बुत बनाया हुआ है। इसके बनाने का मकसद गांव के इतिहास को सदैव लोगों के समक्ष रखना है। पुतला दशहरा मनाने वाले स्थान की पहचान भी दिखाता है। गांववासियों ने बताया कि 158 वर्ष पहले पशुओं को झुंड के रूप में खेतों में चारा खाने छोड़ दिया जाता था। दशहरे वाले दिन गांव के करीब 400 पशुओं को खेतों में छोड़ दिया गया था। उस समय गांव में दशहरा की तैयारियां चल रही थीं। शाम को रावण दहन होना था। देर शाम तक एक भी पशु गांव नहीं लौटा था तो पूरे गांव में खुशी का माहौल गम में बदल गया था। उस दिन गांववासियों ने रावण दहन नहीं किया था। अगले दिन सभी पशु गांव में लौट आए थे तो फिर गांववासियों ने एकादशी पर रावण दहन करके खुशी मनाई थी। उसी दिन से यह रीत चलती आ रही है। एक ही परिवार की चौथी पीढ़ी कर रही निशुल्क सेवा
रावण के पुतले को तैयार करने और झाकियां निकालने में गांव के ही एक परिवार की चौथी पीढ़ी निशुल्क सेवा में लगी है। इन दिनों सेवा संभाल रहे 56 वर्षीय रमेश कुमार ने बताया कि दादा भगत पूर्ण चंद लकड़ी के मिस्त्री थे। शादी के बाद उनके औलाद नहीं हुई थी, तो एक विद्वान ने उन्हें गांव में झाकियां निकालने और रावण के बुत की सेवा करने को कहा था। उनके दादा ने गांव में झाकियां निकालने की शुरुआत की थी और साथ ही रावण के बुत की सेवा शुरू की थी। कुछ समय बाद ही उनके पिता फकीर चंद का जन्म हुआ था। दादा के बाद उनके पिता ने इसी सेवा को जारी रखा था। अब उनके दोनों बेटे यह सेवा करने लगे हैं।