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पीजीआइ में इन मरीजों के लिए स्ट्रेचर ही बन गया आशियाना, लंगर से भूख मिटाकर काट रहे दिन

पीजीआइ में इलाज के लिए आए मरीजों में कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने स्ट्रेचर पर वर्षों वर्षो गुजार दिए हैं। अस्पताल के पार्क में अब स्ट्रेचर ही उनका घर बन चुका है।

By Vipin KumarEdited By: Published: Sun, 17 Mar 2019 12:37 PM (IST)Updated: Sun, 17 Mar 2019 02:54 PM (IST)
पीजीआइ में इन मरीजों के लिए स्ट्रेचर ही बन गया आशियाना, लंगर से भूख मिटाकर काट रहे दिन
पीजीआइ में इन मरीजों के लिए स्ट्रेचर ही बन गया आशियाना, लंगर से भूख मिटाकर काट रहे दिन

 चंडीगढ़, [वीणा तिवारी]।  पीजीआइ में इलाज के लिए आए मरीजों में कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने स्ट्रेचर पर वर्षों वर्षो गुजार दिए हैं। अस्पताल के पार्क में अब स्ट्रेचर ही उनका घर बन चुका है। लंगर से उनका पेट पलता है और संतोष की चादर उन्हें मौसम की मार से बचाती है। जब जागरण संवाददाता ने इन मरीजों से उनकी समस्या के बारे में जाना तो मरीजों और उनके परिजनों के आंखों से आंसू छलक पड़े।

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अस्पताल के पार्क में बसेरा बनाये इन मरीजों के लिए वहां लंगर ही भूख मिटाने का एकमात्र माध्यम है। चलने में असमर्थ मरीजों को हर दिन नये मददगार मिल ही जाते हैं। कोई चाय लाता है तो कोई दाल-रोटी। कमाल और रामबीर का कहना है कि ठीक होने की उम्मीद में एक-एक दिन मुश्किल से कट रहे हैं।

 

केस-1

जून 2016 से पहले देहरादून में राजमिस्त्री का काम करने वाले कमाल लगभग तीन साल से पीजीआइ के गेट नंबर एक के पार्क में एक स्ट्रेचर पर लेटे हुए हैं। कमाल के लिए स्ट्रेचर ही उसका घर है। वह पिछले 34 माह से अपने स्ट्रेचर से नीचे नहीं उतरा, न ही अस्पताल के बाहर की दुनिया देखी है। पूछने पर कहते हैं कि अगर बाहर चला गया तो फिर इलाज कराने में परेशानी होगी। आने-जाने, रहने और खाने के खर्च के लिए पैसे नहीं, इसलिए स्ट्रेचर को ही अपना भाग्य मान चुके हैं। कमाल का बायां पैर ट्रक दुर्घटना में टूट चुका है।

केस-2

मुरादाबाद के रामबीर की जिंदगी फरवरी 2018 से पहले बिल्कुल सामान्य थी। वह पत्नी के जाने के बाद अकेले अपने दोनों बच्चों की परवरिश कर रहा था। जीरकपुर में नौकरी के दौरान एक एक्सीडेंट में उनका पैर टूट गया। सहयोगियों ने पीजीआइ पहुंचाया। रामबीर ने दोनों बच्चों को नानी के पास भिजवा दिया। अब 13 महीने से वह स्ट्रेचर पर लेटे हुए हैं। रामबीर का भी अब तक चार बार ऑपरेशन हो चुका है। वह भी अन्य मरीजों की तरह स्ट्रेचर को ही नसीब मानकर सब ठीक होने की उम्मीद में जीवन व्यतीत कर रहा है।

इलाज कराते डूब गये कर्जे में

इन मरीजों को शुरूआती दौर में तो अपने मालिकों से कुछ आर्थिक मदद मिली लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता गया स्थिति बदलती गई। मालिकों को जब इनके ठीक होकर काम पर लौटने की उम्मीद खत्म होने लगी तब उन्होंने पैसे भेजना भी बंद कर दिया। अब गांव और दूर-दराज के रिश्तेदारों से मदद की आस में ये मरीज खुद को तसल्ली दे रहे हैं।

ठंड हो या बरसात सब एक समान

ठौर-ठिकाने के नाम पर इन मरीजों के पास एक स्ट्रेचर और पार्क में एक कोना मिला हुआ है। अब उनके लिए कड़कड़ाती ठंड, चिलचिलाती धूप और बरसात सभी एक समान हैं। ठंड से बचाव के बारे में उनका कहना है कि मौसम का क्या है जब कुछ कर पाने में असमर्थ हैं तो बस सूर्य की किरण देखकर गर्मी महसूस कर लेते हैं।

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