जज्बे का होगा सम्मान
मेरी उम्र उस समय 16 वर्ष थी। घर में रूढ़ीवादी परंपरा थी।
जागरण संवाददाता, चंडीगढ़ : मेरी उम्र उस समय 16 वर्ष थी। घर में रूढ़ीवादी परंपरा थी। मेरी शादी कर दी गई। दो बच्चे हुए। शादी के चार साल बाद पति गुजर गए। सारी जिम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी। घर में बहुत बंदिशें थी। मगर इससे पेट नहीं भर पाता। मैंने पढ़ने की सोची। पढ़ाई के लिए कमाई भी करनी थी। ऐसे में पार्टटाइम काम किया। जो पैसा आता, वो किताबों और फीस पर निकल जाता। मगर हार नहीं मानी। मैं विधवा थी तो मेरी जैसी कई महिलाओं को दर्द मुझे रोजाना सुनने को मिलता। मैं हर किसी को अपने पैरों पर खड़ा होने की सीख देती रही। धीरे-धीरे ये सीख एक कोशिश बन गई और आज करीब 300 विधवा महिलाओं के लिए घर, परिवार का खर्च और टॉयलेट्स जैसी मूलभूत सुविधाएं प्रदान करती हूं। केरल की सीफिया हनीफ का जीवन कुछ इसी कठिनाइयों से गुजरा जिसके बाद उन्होंने अपना ही नहीं बल्कि दूसरों का भी जीवन बदल दिया। उन्हें आज नीरजा भनोट ट्रस्ट द्वारा उनके कार्य के लिए नीरजा भनोट अवॉर्ड से नवाजेंगी। पुरानी सोच से लड़ना जरूरी
सीफिया ने कहा कि हमारे समाज में औरतों के लिए बंधन ज्यादा हैं। मगर हम हिम्मत करें तो हम हर बंधन से लड़ सकते हैं। मैंने इसी बात को हर महिला से साझा किया। उन्हें विधवा होने के बाद, उन्हें एजुकेशन के लिए प्रेरित किया। मैंने देखा कि इन्हें आत्मनिर्भर बनाना जरूरी है। उनके जीवन में ज्ञान ही प्रकाश डाल सकता है। मैंने हर धर्म वर्ग की महिला को सहारा दिया है। मुझे लगता है कि हमें नियमों में इतना भी बंध नहीं जाना चाहिए कि हम जीना भूल जाएं। सोशल मीडिया से लती हूं मदद
हनीफ ने कहा कि उन्होंने विधवा होने के बाद सोशल वर्क में मास्टर्स की। इसी दौरान उन्होंने ठाना कि वह अपनी जैसी अकेली विधवा औरतों का सहारा बनेंगी। इसके लिए मैंने अपनी तनख्वाह तक इसी उत्थान कार्य में लगा दी। मगर मुझे लगा कि ये अभियान केवल आसपास तक नहीं बल्कि फेसबुक में भी चलाया जाए। ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इससे जुड़ें। ऐसे में मैंने अपना फेसबुक पेज छितल बनाया, ये एक मलयाली शब्द है। इसमें हर विधवा महिला की कहानी को साझा किया। कई बार तो महिलाएं कई बीमारी से पीड़ित भी मिली। मगर फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी, सभी महिलाओं को विश्व से जोड़ा और आज उनका जीवन बहुत बेहतर है।