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अपनी ही पार्टी के नेताओं से परेशान कैप्टन महामारी से निपटने में कर रहे मुश्किलों का सामना

Punjab Politics मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सबसे पहले पंजाब में लाकडाउन व कर्फ्यू लगाने जैसे कड़े फैसले लिए। कोरोना असर कुछ कम हुआ तो कृषि कानूनों के विरोध में किसानों के प्रदर्शनों के साथ ही सियासत शुरू हुई।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 25 May 2021 12:50 PM (IST)Updated: Tue, 25 May 2021 12:56 PM (IST)
अपनी ही पार्टी के नेताओं से परेशान कैप्टन महामारी से निपटने में कर रहे मुश्किलों का सामना
मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह: अपनी ही पार्टी के नेताओं से परेशान महामारी से निपटने में कर रहे मुश्किलों का सामना।

चंडीगढ़, विजय गुप्ता। Punjab Politics कोरोना की दूसरी लहर से पंजाब के गांव बुरी तरह हांफे हैं... और गांवों में किसान बसते हैं। अब ब्लैक फंगस भी महामारी है। हाहाकार है। इसी सबके बीच आपदा में सियासी अवसर तलाशे जाने का मंजर यह है कि कांग्रेस के कई चेहरे पंजाब में दिख रहे हैं। इन चेहरों के ठीक नेपथ्य में सिसकते गांव हैं, बेकाबू महामारी है। निशाने पर महामारी नहीं, सारा ध्यान सियासी कुश्ती पर है। जिन किसानों की पहले पीठ ठोकी गई, अब उनके आगे गिड़गिड़ाना मजबूरी है। कोरोना को कौन पूछे जब कांग्रेस अपने ही रोने में मशगूल है।

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पंजाब में पहली और दूसरी लहर के बीच अंतर यह है कि तब सरकार दृढ़ निश्चयी थी। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सबसे पहले पंजाब में लाकडाउन व कफ्र्यू लगाने जैसे कड़े फैसले लिए। कोरोना असर कुछ कम हुआ तो कृषि कानूनों के विरोध में किसानों के प्रदर्शनों के साथ ही सियासत शुरू हुई। नतीजा यह हुआ कि किसान धरनों-प्रदर्शनों में जुटे रहे और वहां से भी कोरोना ने गांवों की राह ऐसी पकड़ी कि अभी तक पंजाब में इससे मृत्यु की दर देश की दर से ज्यादा है। ऊपर से अगर राज्य सरकार ग्रामीण इलाकों में संक्रमण के आंकड़े इकट्ठा कर ही नहीं रही या फिर उन्हें छिपाया जा रहा है तो इसके निहितार्थ सही नहीं हैं। यह आंकड़ा छिपाना भी गांव के लोगों, किसानों के साथ धोखा करने जैसा ही है। सरकार यह जान भी रही है कि हालात काबू में तभी आएंगे जब गांव संभलेंगे। अभी तक ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में लोग टेस्टिंग ही नहीं करवा रहे थे। ग्रामीण कहीं नाराज न हो जाएं इस वजह से कोई सख्ती भी नहीं की गई। अब डोर-टू-डोर सर्वे में अनेक लोग संक्रमित पाए जाने लगे हैं।

यह सब पहले हो गया होता तो शायद कई जानें बच जातीं। पानी सिर से ऊपर निकल गया है तो मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने एक बार फिर कहा है कि किसान उनके गृह नगर पटियाला में प्रस्तावित तीन दिवसीय धरने-प्रदर्शन को टाल दें, लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी किसानों के 26 मई के राष्ट्रव्यापी विरोध-प्रदर्शन का समर्थन कर रही हैं। ऐसे गंभीर मसलों पर एक ही दल का यह दोहरा चेहरा? यही नहीं, मुख्यमंत्री ने कुछ दिन पहले डीजीपी को निर्देश दिए कि कोरोना के मद्देनजर लगाई गई पाबंदियों को धता बताते हुए प्रदर्शन करने वाले किसानों से सख्ती से निपटा जाए, लेकिन अगले ही दिन जब किसानों ने नाक में दम कर दिया तो कैप्टन को यह कहना पड़ा कि वह आंदोलन को कमजोर नहीं होने देंगे। कैबिनेट मंत्री तृप्त राजिंदर सिंह बाजवा एक दिन कहते हैं कि गांवों के हालात बिगड़ रहे हैं, लेकिन दो रोज बाद उन्हें ऐसा कुछ नहीं लगता।

इस तरह अंर्तिवरोधों व अंतर्कलह से जूझती कांग्रेस के नेता दरअसल इन दिनों महामारी से निपटने के बजाय आगामी विधानसभा चुनाव की सियासत में ज्यादा उलझे हुए हैं। जब से कैप्टन ने अगला चुनाव भी लड़ने और खुद को सीएम प्रोजक्ट करने का एलान किया है तब से वे सभी नेता सक्रिय हो गए हैं जिन्हें कैप्टन के रहते अपनी दाल गलती नजर नहीं आती। इसलिए एक बार फिर बेअदबी की घटना के बाद हुए गोलीकांड और नशे जैसे मुद्दों के जिन्न बाहर निकले हैं। विधायक व पूर्व मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू सबसे पहले बेअदबी के मुद्दे पर सरकार की हीलाहवाली पर सवाल उठाते हैं तो उनके साथ सांसद प्रताप सिंह बाजवा, विधायक परगट सिंह जैसे नेता भी आ जाते हैं।

दावा किया जाता है कि उनके साथ सात विधायक व दो मंत्री हैं। कैप्टन के खिलाफ माहौल बनता देख राणा गुरजीत, सुखजिंदर रंधावा और सुरजीत धीमान जैसे नेता नशे के मुद्दे पर अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा करते हैं। दुखती रग को दबाने की यह कोशिश वाकई पंजाब की जनता को इंसाफ के लिए है या केवल सियासी खेल, यह अंदाजा लगाया जा सकता है। प्रदेश से लेकर केंद्रीय स्तर तक पार्टी नेतृत्व की लाचारी देखिए कि किसी के काबू में हालात नहीं आ रहे। आरोपों-प्रत्यारोपों में उलझे इन नेताओं को प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ की यह नसीहत अपने आप में कांग्रेस की स्थिति को बयां करती है कि आपदा में अवसर न तलाशें, यह समय कोरोना से लड़ने का है। जाखड़ आलाकमान के सहारे हैं, लेकिन आलाकमान, जिसे अभी तक कैप्टन को साधना ही मुश्किल होता रहा है, उसके सामने अब दूसरी व तीसरी पंक्ति के नेता भी हैं। पार्टी प्रभारी हरीश रावत ने तो पूरी स्थिति देखने के बाद चुप्पी साधना बेहतर समझ लिया।

किसान हो या कोरोना, सभी का ठीकरा केंद्र पर फोड़ने वाले और हर बात पर नसीहत देने वाले राहुल गांधी अब अपनी पार्टी की सरकार वाले राज्य में ऐसी हालत में किसे क्या कहेंगे? उनके नेता घमासान में हैं और दोहरी महामारी से जूझते राज्य में टेस्टिंग से लेकर वैक्सीनेशन तक सही ढंग से नहीं हो पा रही। निजी अस्पतालों की लूट है, यह खुद सरकार स्वीकार कर चुकी है, एंबुलेंस के हर जिले में अलग-अलग रेट हैं और जनता पसोपेश में है। ऊपर से उनके नेता आपदा में अवसर तलाश रहे हैं तो वे किसे दोषी ठहराएंगे? ये सवाल तो पूछे जाएंगे, क्योंकि जिंदगी की कीमत पर सियासत नहीं होनी चाहिए। चुनाव आते जाते रहेंगे, लेकिन राज्य के हितों की तिलांजलि नहीं दी जानी चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है। इसके लिए सत्ता पक्ष ही नहीं विपक्ष भी जिम्मेदार है। वह भी ‘आपदा में अवसर’ ही तलाशता नजर आता है। आम आदमी पार्टी और अकाली दल का पूरा जोर इसी पर है कि कांग्रेस, खासकर सरकार में यही घमासान चलता रहे। यही नहीं, भाजपा भी ऐसी ही घिरी रहे कि उसके नेता जनता के बीच जाने में असुरक्षित महसूस करते रहें। इस माहौल में कोरोना के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने का जज्बा कहीं तो पीछे छूटेगा ही। किसान हो या कोरोना... नेताओं का अपना ही रोना है।

[वरिष्ठ समाचार संपादक, पंजाब]


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