कहानियों को खींचकर रंगमंच तक लाया हूं
कहानियां बहुत कुछ कहती हैं।
जागरण संवाददाता, चंडीगढ़ : कहानियां, बहुत कुछ कहती हैं। कमाल की बात है, इसे आप अपने अंदाज में बयां कर सकते हैं। लिखने वाले ने जो लिखा, कहने वाला उसे अपने ढंग से कह सकता है। कहानी की यही खूबसूरती मंच तक लाने का मन था। जो पूरा हुआ भी रंगमंच के द्वारा ही। आज कहानियों का रंगमंच हर कहीं फल-फूल रहा है। खुशी होती है कि एक कोशिश, जो तबियत से की, वो कामयाब रही। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के पूर्व निदेशक डॉ. देवेंद्र राज अंकुर कुछ इन्हीं शब्दों में अपने कहानी के रंगमंच पर बात करते हैं। बाल भवन-23 में आयोजित टीएफटी विटर थिएटर फेस्टिवल के आखिरी दिन वह रूबरू सेशन में शामिल हुए। हरियाणा कला परिषद के वाइस चेयरमैन सुदेश शर्मा ने उनके साथ रंगमंच पर जुड़ी चर्चा की। डॉ. अंकुर ने कहा कि उनका जन्म सिरसा में 1948 में हुआ। मगर बाद में परिवार सहित दिल्ली जाना हुआ। घर का माहौल बचपन से ही किताबी रहा। तो साहित्य ने अपनी और खींच लिया। मेरे लिए गर्मियों की छुट्टियां साहित्य के साथ ही बीतती। भाई दिल्ली यूनिवर्सिटी में कार्यरत रहे, तो घर में किताबों को ढेर लगा रहता था। जो हाथ लगे, वही पढ़ लो। कॉलेज में गया, तो वहां यूथ फेस्टिवल में रंगमंच में हिस्सा लेने लगा। यहीं से रंगमंच के लिए गंभीरता ऐसी बढ़ी कि एनएसडी में एडमिशन ले लिया। बस फिर तो रास्ता तय हो गया रंगमंच का। इस दौरान रंगमंच के बेहतरीन कलाकार अब्राहम अलकाजी, बीवी कारंत और रतन थियम जैसे लोगों के साथ रंगमंच करने को मिला। ऐसे में मेरी सोच में भी काफी परिवर्तन आया। रंगमंच में जो मिला, पूरी टीम के साथ बांटता रहा
डॉ. अंकुर ने कहा कि रंगमंच में अकसर एक्टर खाली हाथ रह जाते हैं। प्रोडक्शन को तो रुपया मिल जाता है, मगर भूखा एक्टर एक्टिंग कैसे करे। तो सोचा कि कुछ ऐसी तरकीब निकाली जाए, जिससे हर किसी को मेहनताना मिले। ऐसे में मैंने अपनी प्रोडक्शन में मिलना वाला रुपया पूरी टीम को बराबर बांटना का सोचा, जो ग्रुप के लिए अच्छा भी रहा। एनएसडी रेपेटरी में निर्देशक के तौर पर काम करना भी बेहतर रहा। मुझे डायरेक्शन के बारे में भी काफी कुछ पता चला। मेरे अनुसार डायरेक्शन में ट्रेनिग से ज्यादा ऑब्जर्वेशन जरूरी है। युवा रंगकर्मियों को भी यही सीख देता हूं।