मां की उदास आंखों ने लिखना सिखाया, डॉ. सुरजीत पात्तर ने लेखन यात्रा पर रखी बात
लेखक की पहली प्रेरणा कोई भी हो सकता है। मेरे लिए ये मेरे माता-पिता रहे। उनके साथ बिताए पल कहीं न कहीं लेखनी में दिख ही जाते हैं।
जागरण संवाददाता, चंडीगढ़ : लेखक की पहली प्रेरणा कोई भी हो सकता है। मेरे लिए ये मेरे माता-पिता रहे। उनके साथ बिताए पल कहीं न कहीं लेखनी में दिख ही जाते हैं। जैसे मेरे पिता जी जब नैरोबी गए, तो कई वर्ष तक घर नहीं आते थे। ऐसे में उनसे दूरी लेखनी से ही मिटती थी। ऐसे ही मां के साथ मेरा रिश्ता रहा। मुझे संगीत पसंद था। ऐसे में हर रोज मां से हारमोनियम खरीदने की अपील करता। घर में पैसों की तंगी थी। ऐसे में हारमोनियम खरीदना मुश्किल था। मगर उन्हें तकलीफ होती की वो मुझे एक हारमोनियम भी खरीद के नहीं दे सकती थी। ऐसे में उनकी उदास आखें भी मुझे लिखने के लिए प्रेरित करती। डॉ. सुरजीत पात्तर ने कुछ इन्हीं शब्दों में अपनी लेखन यात्रा पर बात की।
टैगोर थिएटर के पूर्व डायरेक्टर बलकार सिद्धू के साथ बातचीत करने हुए उन्होंने अपने माता-पिता के साथ रिश्ते पर भी बात की। उन्होंने कहा कि उनका जन्म 1945 में जालंधर में हुआ। वो चार बहनों के बड़े भाई थे। घर में गरीबी थी, सो पिता ईस्ट अफ्रीका में नौकरी की तलाश में गए। वो बहुत कम घर आ पाते थे। कई बार तो पांच वर्ष में एक महीने के लिए ही। ऐसे में उनकी दूरी को मैं संगीत से मिटाता था। संगीत मुझे बहुत पसंद था। गुरुद्वारों, मंदिरों और मस्जिदों जहां भी कोई तर्ज सुनता, तो वहीं बैठ जाता। मैंने बचपन में ही समझ लिया था कि संगीत ही मुझे मुक्ति दिला सकता है।
साहित्य संसार में पूरे किए 50 वर्ष..
डॉ. पात्तर ने कहा कि उन्हें इस वर्ष पूरे 50 वर्ष हो चुके हैं लिखते हुए। ये सफर शानदार रहा। हालांकि इन्हें इन शब्दों के साथ साझा करुंगा कि मैं राहां ते नई तुरदा, मैं तुरदा हां ओथे राह बनदे, युगां तो काफिले औंदे, किसे सच दे गवाह बनदे। मुझे अपने सफर में कभी कोई गम नहीं हुआ। जब भी लिखा वो दिल से लिखा। खुशी है कि कई भाषाओं में मेरा लिखा अनुवाद भी हुआ। साथ ही कई बड़े लेखकों को पंजाबी में लिखने का भी मौका मिला। पंजाबी भाषा की सेवा में जितना कर सका, मैं खुश हूं।