ओह धरती वांग बोलिया
स्वर्गीय गुरुशरण सिंह के 90वें जन्मदिवस पर पंजाब कला भवन में राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया।
जागरण संवाददाता, चंडीगढ़ : ओह धरती वांग बोलिया, दीवारा वांग नी बोलिया, ओह तलवारां वांग बोलिया, हथियार वांग नी बोलिया..गुरुशरण सिंह को जब भी याद करता हूं तो ये पंक्तियां दिमाग में उतर आती हैं। ये मैंने उन्हीं के लिए लिखी थी। जिसमें उनकी शख्सियत को बताना चाहता था। सन 84 में जब पंजाब दंगों की आग में जल रहा था तो हम घर में दुबके थे। हम बाहर निकलने से डरते थे। मगर एक शख्स था जो अपनी आवाज ऊंची कर पंजाब के हर गली-मोहल्ले में गया। उसने नुक्कड़ नाटक किए। लोगों को जागरूक किया। पंजाब को फिर खड़ा किया। पद्मश्री कवि सुरजीत पात्तर कुछ इन्हीं शब्दों में गुरुशरण सिंह की याद में बोले। पंजाब कला भवन-16 में सोमवार को पंजाबी साहित्य अकादमी द्वारा गुरुशरण सिंह के 90वें जन्मदिवस पर आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में वह शामिल हुए। उनके साथ रंगमंच के दिग्गज पद्मश्री राम गोपाल बजाज, पद्मश्री बंसी कौल और पद्मश्री नीलम मान सिंह भी शामिल हुए। पात्तर ने कहा कि हर दौर में तानाशाही रही है और हर दौर में लेखक भी रहा है। एक कलाकार और एक लेखक समाज की आवाज बनता है। गुरुशरण उस दौर में हमारी आवाज बने जब बोलने पर खतरा था। वो अपनी टोली लेकर कहीं भी पहुंच जाते थे। उन्हीं की वजह से मेरी भी कलम में दर्द आया, ये मेरे लिए सौभाग्य की बात रही कि उनसे जब भी मिला, कुछ न कुछ सीखता गया। शब्दों की कीमत उनसे ही जानी
बंसी कौल ने गुरुशरण को याद करते हुए कहा कि वह ऐसे शख्स थे जिनसे हमेशा कुछ सीखने को मिलता था। हम तो जम्मू में बसे थे, वहां भी उनके किस्से सुने थे। उनके साथ जब काम करने का मौका मिला तो पता चला कि उन्हें हर किरदार में एक संघर्ष पसंद था। जो खुली आवाज में हर समस्या को हर चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार होता था। वो खुद कई बार किरदार से बाहर निकलकर लोगों से बात करने लगते थे। लोगों को पता नहीं चलता था कि ये इंसान उनके सामने अभी नाटक कर रहा था और अब असलियत बता रहा है। मैं जब अमृतसर में उनके साथ काम कर रहा था, तो हमारा ध्यान नाटक के सेट और कॉस्ट्यूम पर था। मगर गुरुशरण ने हमें कहा कि इन सब से ज्यादा जरूरी है शब्द, वही नाटक की पहचान होते हैं और उसी पर काम करना चाहिए। इसी सीख ने मुझे नाटक की गहराइयों से जोड़ा। मुझे खुशी है कि मैंने ऐसे शख्स के साथ काम किया। बुल्ले शाह के आगे टैगोर की मिसाल दी
रामगोपाल बजाज ने कहा कि मैंने कुछ वक्त पंजाब में बिताया। यहां चंडीगढ़ में ही टैगोर थिएटर-18 में मुझे नाटक करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वो 80 के दशक की बात थी। मैंने सोचा कि यहां पर टैगोर का एक नाटक करूंगा। उस समय मैं चाहता था कि पंजाबी भाषा में इसे करूं। मैं परेशान था कि ये सब कैसे होगा। उसी दौरान एक बुजुर्ग मेरे पास आए। उनके हाथ बहुत ही नरम थे। मैं हैरान था कि एक पंजाबी के हाथ इतने नरम कैसे। मैंने उन्हें अपनी विपदा बताई, तो उन्होंने मुझे पंजाब यूनिवर्सिटी में मिलने को कहा। मैं वहां गया और उनसे बात हुई। मैंने कहा कि मैं टैगोर के महान नाटक को यहां करना चाहता हूं। उन्होंने उसी दौरान मुझे बुल्ले शाह के कलाम को सुनाया। मैं उसे सुनकर हैरान था। उन्होंने कहा कि पंजाब की धरती में ये 500 साल पहले लिखा गया था, आप यहां टैगोर करना चाह रहे हो। मैंने उसी दौरान ये समझ लिया कि यहां का साहित्य और लोग बहुत गहरे हैं, उन्हें यहीं के किसी बेहतर लेखक से रूबरू करवाना बेहतर होगा। देश के बेहतरीन लोगों में से वो केवल एक पंजाबी थे
नीलम मान सिंह ने कहा कि मैं 80 के दशक में एक बार भारत भवन गई। वहां पर हिदी के तमाम महान साहित्यकार और रंगकर्मी पहुंचे हुए थे। मैं वहां जाकर एक सरदार जी से मिली। मैंने गुरुशरण सिंह का नाम सुना तो था, मगर उनसे मिलना नहीं हुआ था। मुझे बाद में पता चला कि ये पगड़ी वाले सरदार जी वही गुरुशरण सिंह हैं। उनकी बातें सुनकर मैंने उनके बारे में काफी कुछ जाना, जो हर सरकार से लड़कर एक आम मजदूरों के लिए बोलते थे और इसे बेहतर बनाने के लिए लड़ते थे।