नई बोतल में पुरानी शराब, नाटक 'हमारी भी सुनो' दर्शकों में नहीं छोड़ पाया गहरी छाप
दो पीढि़यों का द्वंद। हर किसी का एक मसला की हमारी भी सुनो। पुराने समय से चलते आ रहे जैनरेशन गैप को नाटक हमारी भी सुनो में उठाया गया।
By Edited By: Published: Wed, 15 May 2019 02:29 AM (IST)Updated: Wed, 15 May 2019 04:02 PM (IST)
जागरण संवाददाता, चंडीगढ़। दो पीढि़यों का द्वंद। हर किसी का एक मसला की हमारी भी सुनो। पुराने समय से चलते आ रहे जैनरेशन गैप को नाटक हमारी भी सुनो में उठाया गया। मगर ये स्क्रिप्ट भी बहुत पुरानी लग रही थी। हालांकि इसमें कुछ नए नाम जरूर रहे, जैसे कि रणवीर और रनबीर मगर इसके अलावा कुछ नया सा नहीं दिखता है। टैगोर थिएटर-18 में चंडीगढ़ संगीत नाटक अकादमी द्वारा आयोजित हास्य उत्सव हास्यम में दूसरे दिन नाटक हमारी भी सुनो कुछ ऐसा ही अनुभव करवाती है।
नई दिल्ली के तमाशा ग्रुप द्वारा मंचित नाटक का निर्देशन और लेखन विनोद वर्मा ने किया। अभिनय अच्छा मगर स्क्रिप्ट कमजोर नाटक की शुरुआत एक ऐसे दंपती से होती है, जो है तो खुश मगर उनका बेटा एक अलग सोच रखता है। मंच वैसा ही है, जिसमें बजट बचाने के चकर में सेट के नाम पर कुर्सियां रख दी जाती हैं। ऐसे में नाटक की कोई खास ग्रेस नहीं रहती। अदाकार अपना अभिनय जरूर चमकाते हैं, मगर ये भी ज्यादा आकर्षण पैदा करे, ये जरूरी नहीं। नाटक में एक रिटायर्ड फौजी अपनी सोच सभी घरवालों पर थोपता है। ऐसे में मां और बेटा दोनों ही परेशान रहते हैं। ऐसे में धीरे धीरे घर में कुछ और लोग आते हैं, वो भी अपनी अपनी सोच रखने लगते हैं। ऐसे में बोलने वाले तो बहुत होते हैं। मगर सुनने वाला कम। नाटक में अभिनय पक्ष ही इसे देखने योग्य बनाता है। लेखन बुरा नहीं, मगर पुराने समय का है, जिसे अब मुश्किल से ही युवा सुनना पसंद करता है। हालांकि नाटक में कलाकार आपको बांधते जरूर हैं। मगर इसे नए अंदाज में प्रस्तुत करना जरूरी था, जिसमें कहीं न कहीं निर्देशक विफल रहे।
नई दिल्ली के तमाशा ग्रुप द्वारा मंचित नाटक का निर्देशन और लेखन विनोद वर्मा ने किया। अभिनय अच्छा मगर स्क्रिप्ट कमजोर नाटक की शुरुआत एक ऐसे दंपती से होती है, जो है तो खुश मगर उनका बेटा एक अलग सोच रखता है। मंच वैसा ही है, जिसमें बजट बचाने के चकर में सेट के नाम पर कुर्सियां रख दी जाती हैं। ऐसे में नाटक की कोई खास ग्रेस नहीं रहती। अदाकार अपना अभिनय जरूर चमकाते हैं, मगर ये भी ज्यादा आकर्षण पैदा करे, ये जरूरी नहीं। नाटक में एक रिटायर्ड फौजी अपनी सोच सभी घरवालों पर थोपता है। ऐसे में मां और बेटा दोनों ही परेशान रहते हैं। ऐसे में धीरे धीरे घर में कुछ और लोग आते हैं, वो भी अपनी अपनी सोच रखने लगते हैं। ऐसे में बोलने वाले तो बहुत होते हैं। मगर सुनने वाला कम। नाटक में अभिनय पक्ष ही इसे देखने योग्य बनाता है। लेखन बुरा नहीं, मगर पुराने समय का है, जिसे अब मुश्किल से ही युवा सुनना पसंद करता है। हालांकि नाटक में कलाकार आपको बांधते जरूर हैं। मगर इसे नए अंदाज में प्रस्तुत करना जरूरी था, जिसमें कहीं न कहीं निर्देशक विफल रहे।
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