चुनावी जंग में नीतीश ने दी लालू को ऐसे दी पटखनी, समीकरण साध आसान की NDA की राह
लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने नए समीकरण साधे और लालू की लालटेन बुझा दी। बिहार में उन्होंने किस तरह एनडीए की राह असान की जानिए इस खबर में।
By Amit AlokEdited By: Published: Fri, 31 May 2019 10:42 AM (IST)Updated: Fri, 31 May 2019 10:55 PM (IST)
पटना [अरविंद शर्मा]। लोहे को काटने के लिए लकड़ी कारगर नहीं हो सकती है। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) प्रमुख लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) जिस माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण के बूते बिहार की सियासत में पिछले तीन दशकों से अपरिहार्य बने हुए थे, लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने उन्हीं की शैली में उन्हें जवाब दिया। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (BJP) व लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के साथ रणनीति तैयार की। समीकरण साधे और जंग जीत ली। इस तरह बिहार में नीतीश ने लालू की लालटेन का आखिरी अध्याय तैयार कर दिया।
लालू के किले को ध्वस्त करने की थी चुनौती
वर्ष 2014 में बिहार की चार संसदीय सीटों मधेपुरा, भागलपुर, बांका और अररिया पर लालू की पार्टी आरजेडी ने जीत दर्ज की थी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) में सीट बंटवारे में अररिया छोड़कर सभी तीन सीटें जनता दल यूनाइटेड (JDU) की झोली में आई। नीतीश कुमार के सामने लालू प्रसाद के किले को ध्वस्त करने की बड़ी चुनौती थी। मोदी लहर में भी बीजेपी जिन सीटों को निकालने में कामयाब नहीं हो सकी थी, वहां एनडीए राजग की जीत के लिए माहौल बनाना इतना आसान नहीं था।
काम आई नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग
किंतु नीतीश ने नई सोशल इंजीनियरिंग के जरिए एनडीए का इकबाल बुलंद किया। जेडीयू ने आरजेडी के प्रभाव वाली अपने हिस्से की तीनों सीटों पर उसी जाति का प्रत्याशी उतारा जिससे आरजेडी के प्रत्याशी थे।
उक्त तीनों संसदीय क्षेत्रों के कुल 18 विधानसभा क्षेत्रों से विपक्ष का पूरी तरह सफाया हो गया। जेडीयू की गिरफ्त से एक भी सीट नहीं फिसली। सभी विधानसभा क्षेत्रों में तीर का निशाना बिल्कुल सटीक लगा।
नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग थी, जिसके सहारे मधेपुरा में शरद यादव की अबतक की सबसे बड़ी हार हुई। वे तीन लाख से भी ज्यादा वोटों से हार गए। इतने वोटों से उन्हें खुद लालू यादव ने भी कभी नहीं हराया था।
लोहे को लोहे से काटा
बांका में पुतुल कुमारी की दावेदारी को नजरअंदाज करने को लेकर कई तरह की बातें की जा रही थीं, किंतु नतीजे ने साबित कर दिया कि नीतीश की चाल बिल्कुल सही थी। आरजेडी सांसद एवं लालू के करीबी जय प्रकाश यादव के खिलाफ नीतीश ने पुतुल के बजाय गिरिधारी यादव पर दांव लगाया और सफल भी हुए।
मधेपुरा को यादव बहुल क्षेत्र माना जाता है। शुरू से अभी तक यहां से कोई न कोई यादव नेता ही संसद जाते रहा है। इसलिए इसे लालू प्रसाद का गढ़ माना जाता है। आरजेडी ने यादवों के सबसे बड़े नेता शरद यादव को मधेपुरा से उतारा था। नीतीश ने उनके खिलाफ दिनेश चंद्र यादव पर भरोसा किया।
भागलपुर में पिछली बार आरजेडी के बुलो मंडल सांसद बने थे। वे गंगोता जाति से आते हैं। नीतीश ने बुलो के जवाब में गंगोता जाति के ही अजय मंडल को प्रत्याशी बना दिया।
सत्ता की चाबी नीतीश के पास
बिहार की सियासत में 2005 से ही नीतीश कुमार की अहमियत कभी कम नहीं हुई है। लोकसभा और विधानसभा के पिछले पांच आम चुनावों के नतीजे बताते हैं कि नीतीश जिसके साथ होते हैं, सत्ता उसी के पास होती है। साफ है कि नीतीश ने अपने पक्ष में एक विश्वसनीय जनाधार तैयार कर लिया है। अकेले जीत से भले वंचित रह जाएं, किंतु गठबंधन की राजनीति में वह जिसके पक्ष में खड़े होंगे, उसी का पलड़ा भारी होगा। 2015 में जब उन्होंने आरजेडी के साथ महागठबंधन बनाया तो जीत बीजेपी से दूर हो गई। अबकी बीजेपी से जेडीयू के पुनर्मिलन के कारण आरजेडी समेत महागठबंधन का सूपड़ा साफ हो गया।
लालू के किले को ध्वस्त करने की थी चुनौती
वर्ष 2014 में बिहार की चार संसदीय सीटों मधेपुरा, भागलपुर, बांका और अररिया पर लालू की पार्टी आरजेडी ने जीत दर्ज की थी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) में सीट बंटवारे में अररिया छोड़कर सभी तीन सीटें जनता दल यूनाइटेड (JDU) की झोली में आई। नीतीश कुमार के सामने लालू प्रसाद के किले को ध्वस्त करने की बड़ी चुनौती थी। मोदी लहर में भी बीजेपी जिन सीटों को निकालने में कामयाब नहीं हो सकी थी, वहां एनडीए राजग की जीत के लिए माहौल बनाना इतना आसान नहीं था।
काम आई नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग
किंतु नीतीश ने नई सोशल इंजीनियरिंग के जरिए एनडीए का इकबाल बुलंद किया। जेडीयू ने आरजेडी के प्रभाव वाली अपने हिस्से की तीनों सीटों पर उसी जाति का प्रत्याशी उतारा जिससे आरजेडी के प्रत्याशी थे।
उक्त तीनों संसदीय क्षेत्रों के कुल 18 विधानसभा क्षेत्रों से विपक्ष का पूरी तरह सफाया हो गया। जेडीयू की गिरफ्त से एक भी सीट नहीं फिसली। सभी विधानसभा क्षेत्रों में तीर का निशाना बिल्कुल सटीक लगा।
नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग थी, जिसके सहारे मधेपुरा में शरद यादव की अबतक की सबसे बड़ी हार हुई। वे तीन लाख से भी ज्यादा वोटों से हार गए। इतने वोटों से उन्हें खुद लालू यादव ने भी कभी नहीं हराया था।
लोहे को लोहे से काटा
बांका में पुतुल कुमारी की दावेदारी को नजरअंदाज करने को लेकर कई तरह की बातें की जा रही थीं, किंतु नतीजे ने साबित कर दिया कि नीतीश की चाल बिल्कुल सही थी। आरजेडी सांसद एवं लालू के करीबी जय प्रकाश यादव के खिलाफ नीतीश ने पुतुल के बजाय गिरिधारी यादव पर दांव लगाया और सफल भी हुए।
मधेपुरा को यादव बहुल क्षेत्र माना जाता है। शुरू से अभी तक यहां से कोई न कोई यादव नेता ही संसद जाते रहा है। इसलिए इसे लालू प्रसाद का गढ़ माना जाता है। आरजेडी ने यादवों के सबसे बड़े नेता शरद यादव को मधेपुरा से उतारा था। नीतीश ने उनके खिलाफ दिनेश चंद्र यादव पर भरोसा किया।
भागलपुर में पिछली बार आरजेडी के बुलो मंडल सांसद बने थे। वे गंगोता जाति से आते हैं। नीतीश ने बुलो के जवाब में गंगोता जाति के ही अजय मंडल को प्रत्याशी बना दिया।
सत्ता की चाबी नीतीश के पास
बिहार की सियासत में 2005 से ही नीतीश कुमार की अहमियत कभी कम नहीं हुई है। लोकसभा और विधानसभा के पिछले पांच आम चुनावों के नतीजे बताते हैं कि नीतीश जिसके साथ होते हैं, सत्ता उसी के पास होती है। साफ है कि नीतीश ने अपने पक्ष में एक विश्वसनीय जनाधार तैयार कर लिया है। अकेले जीत से भले वंचित रह जाएं, किंतु गठबंधन की राजनीति में वह जिसके पक्ष में खड़े होंगे, उसी का पलड़ा भारी होगा। 2015 में जब उन्होंने आरजेडी के साथ महागठबंधन बनाया तो जीत बीजेपी से दूर हो गई। अबकी बीजेपी से जेडीयू के पुनर्मिलन के कारण आरजेडी समेत महागठबंधन का सूपड़ा साफ हो गया।
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