CM नीतीश ने बदला सियासी एजेंडा तो बदलने लगे बोल, जाति पर हावी हुआ विकास
बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपना सियासी एजेंडा बदला तो विपक्ष भी इससे अछूता नहीं रहा। इसके कारण अब जातीय समीकरणों पर विकास की राजनीति हावी होती दिख रही है।
पटना [अरविंद शर्मा]। गतिरोध-प्रतिरोध की राजनीति ने दहेज प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ अभियान में विपक्षी दलों को सत्तारूढ़ दलों की राह से भले ही अलग कर दिया है, किंतु इस बात से किसी को इनकार नहीं कि सामाजिक कुरीतियों ने बिहार का बहुत नुकसान किया है। इससे भी इनकार नहीं कि सामाजिक न्याय और तरक्की के लिए ऐसी प्रथाओं पर प्रतिबंध लगना चाहिए। जाहिर है, नीतीश कुमार की मुद्दों की राजनीति ने डेढ़ दशक में बिहार की सियासत की दशा-दिशा बदल दी है। जातपात और सामाजिक समीकरणों के सहारे चुनाव लडऩे वाले भी अब विकास के नारे लगाने लगे हैं।
दहेज प्रथा एवं बाल विवाह के विरुद्ध रविवार को प्रस्तावित मानव शृंखला से बिहार की प्रमुख विपक्षी पार्टियां राजद एवं कांग्रेस ने खुद को अलग रखने का एलान कर रखा है। किंतु इतना साफ है कि राज्य सरकार से उनका नीतिगत विरोध है। उन्हें सामाजिक कुरीतियों से लगाव नहीं। विपक्षी दलों को न तो नीतीश के सुशासन वाले एजेंडे और न ही विकास के नारों से परहेज है। अगर ऐसा होता तो 21 जनवरी 2017 को गांधी मैदान की मानव श्रृंखला में राजद-जदयू और कांग्रेस के शीर्ष नेता एक साथ नहीं खड़े होते। नीतीश कुमार के साथ लालू प्रसाद, तेजस्वी यादव और कांग्र्रेस के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी की लाइन नहीं लगती।
मुख्यमंत्री की विकास समीक्षा यात्रा की समीक्षा करने की योजना बना रहे दलों की चाल-ढ़ाल संकेत कर रही है कि 90 के दशक की राजनीति करने वाले नेताओं ने भी खुद को बदलने की तैयारी कर ली है। उन्होंने भी महसूस कर लिया है कि सत्ता में वापसी का सबसे उत्तम रास्ता वही है, जिस पर नीतीश कुमार का काफिला चल रहा है। यही कारण है कि अब वह भी बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य का मुद्दा उठा रहे हैं। सत्तारूढ़ दलों को कठघरे में खड़ा करने के लिए योजनाओं की समीक्षा कर रहे हैं। जन समस्याओं पर मुखर हो रहे हैं। उनके बीच जा रहे हैं। धरना-प्रदर्शन, आंदोलन और समीक्षा यात्राओं का सहारा ले रहे हैं। प्रतिपक्ष के नेता भी सत्ताधारी गठबंधन पर हमले के लिए विकास और सुशासन की समीक्षा कर रहे हैं।
2005 से ही मिटने लगे थे सियासत के दाग
इस सदी की शुरुआत में बिहार की राजनीति जातपात और सामाजिक समीकरणों के लिए देशभर में जानी जाती थी, लेकिन 2005 में सत्ता बदलते ही पुराने दाग-धब्बे मिटने लगे। तरक्की की तस्वीर उभरने लगी। नीतीश कुमार ने विकास और सुशासन को आधार बनाकर सियासत का फार्मूला गढ़ा। परेशानियां हुईं। कटाक्ष भी हुआ, लेकिन सत्ता के संकल्प के आगे सब नतमस्तक हो गए। बाद में विरोधी दलों को भी उसी राह पर चलने के लिए मजबूर होना पड़ा। अब तो सबकी जुबान पर सिर्फ विकास है। उनके बयान भी बदल गए हैं, जो कभी मुद्दे की राजनीति को अप्रासंगिक बताकर खारिज कर दिया करते थे।