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धारा 35-ए के क्‍या हैं मायने और सुप्रीम कोर्ट इस बारे में किन सवालों के तलाशेगा जवाब

संविधान की किताबों में न मिलने वाला अनुच्छेद 35-ए जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता है कि वह स्थायी नागरिक की परिभाषा तय कर सके

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 06 Aug 2018 12:16 PM (IST)Updated: Mon, 06 Aug 2018 12:56 PM (IST)
धारा 35-ए के क्‍या हैं मायने और सुप्रीम कोर्ट इस बारे में किन सवालों के तलाशेगा जवाब

सतीश पेडणोकर। धारा 35-ए के मुद्दे पर कश्मीर घाटी के 27 व्यापारिक संगठनों ने केंद्र सरकार को गंभीर परिणामों की चेतावनी देते हुए पांच-छह अगस्त को दो दिवसीय कश्मीर बंद किया है। 6 अगस्त को 35-ए को भंग करने के संदर्भ में दायर जनहित याचिकापर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने वाली है। वहीं कश्मीर के सभी संगठन इसके संवैधानिक प्रावधान को बनाए रखना चाहते हैं। पिछले वर्ष अनुच्छेद 35ए का मामला उठने पर जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने संविधान के अनुच्छेद 35ए में बदलाव के मुद्दे को उठाते हुए चेतावनी दी कि अगर इसमें बदलाव होता है तो कश्मीर में तिरंगे की सुरक्षा के लिए कोई आगे नहीं आएगा। इस अनुच्छेद के समर्थकों का कहना है कि 35ए के हटने का मतलब है जम्मू कश्मीर में रोजगार के विकल्प खत्म करना। इससे लोग बेरोजगार होंगे, उनके पास रहने को जगह नहीं होगी। बाहर से लोग आकर बस जाएंगे। रियासत के लोगों के लिए स्टेट सब्जेक्ट एक सुरक्षा है, जो उनसे छिन जाएगा। लेकिन अब इसे बचाना किसी के हाथ में नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में 35-ए के खिलाफ मामला चल रहा है।

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इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में होने वाले फैसले पर ही धारा 35-ए का भविष्य निर्भर करेगा। मगर अचानक 35-ए महत्वपूर्ण हो गई है। कारण यह है कि संविधान की किताबों में न मिलने वाला अनुच्छेद 35-ए जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता है कि वह स्थायी नागरिक की परिभाषा तय कर सके। दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 35-ए को 14 मई 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में जगह मिली थी। संविधान सभा से लेकर संसद की किसी भी कार्यवाही में, कभी अनुच्छेद 35-ए को संविधान का हिस्सा बनाने के संदर्भ में किसी संविधान संशोधन या बिल लाने का जिक्र नहीं मिलता है। 35-ए को लागू करने के लिए तत्कालीन सरकार ने धारा 370 के अंतर्गत प्राप्त शक्ति का इस्तेमाल किया था। 1954 में 14 मई को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने एक आदेश पारित किया था। इस आदेश के जरिये संविधान में एक नया अनुच्छेद 35ए जोड़ दिया गया। संविधान की धारा 370 के तहत यह अधिकार दिया गया है।

35-ए संविधान का वह अनुच्छेद है जो जम्मू कश्मीर विधानसभा को लेकर प्रावधान करता है कि वह राज्य में स्थायी निवासियों को पारभाषित कर सके। वर्ष 1956 में जम्मू कश्मीर का संविधान बना जिसमें स्थायी नागरिकता को परिभाषित किया गया। अनुच्छेद 35-ए की वजह से जम्मू कश्मीर में पिछले कई दशकों से रहने वाले बहुत से लोगों को कोई भी अधिकार नहीं मिला है। 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान छोड़कर जम्मू में बसे हिंदू परिवार आज तक शरणार्थी हैं। एक आंकड़े के मुताबिक 1947 में जम्मू में 5,764 परिवार आकर बसे थे। इनको आज तक कोई नागरिक अधिकार हासिल नहीं हैं। अनुच्छेद 35-ए की वजह से ये लोग सरकारी नौकरी भी हासिल नहीं कर सकते और न ही इन लोगों के बच्चे यहां व्यावसायिक शिक्षा देने वाले सरकारी संस्थानों में दाखिला ले सकते हैं।

अनुच्छेद 35ए के मुताबिक अगर जम्मू कश्मीर की कोई लड़की किसी बाहर के लड़के से शादी कर लेती है तो उसके सारे अधिकार खत्म हो जाते हैं। साथ ही उसके बच्चों के अधिकार भी खत्म हो जाते हैं। वैसे जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने के लिए धारा 370 को खत्म करने की संसदीय प्रक्रिया अपनाने की जरूरत नहीं है। विशेष दर्जा जिस 35-ए के कारण भी है, जिसे राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में शामिल किया गया है जो असंवैधानिक है, क्योंकि राष्ट्रपति के प्रशासनिक आदेश से संविधान में कैसे संशोधन किया जा सकता है। इसलिए उसने अनुच्छेद 370 पर अपना रुख बदलते हुए अनुच्छेद 35-ए को चुनौती देने का फैसला किया है। उसे यदि सुप्रीम कोर्ट अवैध घोषित कर दे तो उसे संसदीय रास्ता अपनाने की जरूरत ही नहीं रहेगी।

संघ की विचारधारा वाले थिंक टैंक जम्मू कश्मीर स्टडी सेंटर के मुताबिक भारत के संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा में जम्मू कश्मीर के 4 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। 25 नवंबर 1949 को कर्णसिंह ने घोषणा कर भारत के संविधान को स्वीकार किया। 26 जनवरी को लागू भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 में उल्लेख है कि 15वें नंबर का राज्य जम्मू कश्मीर है। 26 जनवरी 1957 में जम्मू कश्मीर का नया संविधान लागू हुआ। उसके प्रस्तावना की पहली पंक्ति में ही स्पष्ट तौर पर उल्लेख है कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। सबसे बड़ा भ्रम है कि धारा-370 राज्य को विशेष दर्जा या स्वायत्तता को दर्शाता है। यह विलय का माध्यम है। इसमें विशेष दर्जे के बारे में कुछ नहीं लिखा है। कहा जाता है कि अधिमिलन पत्र और 1952 में हुए दिल्ली समझौते के तहत हमने जम्मू कशमीर को स्वायत्तता दी। लेकिन दिल्ली समझौता केवल दो राजनीतिज्ञों की आपसी समझ थी। दो नेताओं ने फैसले कर लिए और उन फैसलों को सारे देश पर थोप दिया।

जम्मू कश्मीर के बारे में बहुत सारी बातें कहानियों में चलती आ रही हैं। जब विधि और दस्तावेजों की बात चलती है तो शेख अब्दुल्ला और नेहरू के भाषण सामने आ जाते हैं। लेकिन भाषण भी कभी कानूनी दस्तावेज नहीं होते हैं। दिल्ली समझौता नेहरू और शेख ने बैठकर कर लिया, कोई लिखित समझौता तो नहीं किया था। दिल्ली स्थित ‘वी द सिटिजंस’ नामक एक गैर-सरकारी संस्था ने 35-ए के खिलाफ याजिका दाखिल की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका पर सुनवाई के लिए तीन जजों की एक पीठ गठित की है जो इस पर सुनवाई शुरू करेगी। अनुच्छेद 35-ए की संवैधानिक स्थिति क्या है? यह अनुच्छेद भारतीय संविधान का हिस्सा है या नहीं? क्या राष्ट्रपति के एक आदेश से इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ देना अनुच्छेद 370 का दुरूपयोग करना है? वैसे अनुच्छेद 35-ए से जुड़े कुछ सवाल और भी हैं. यदि अनुच्छेद 35-ए असंवैधानिक है तो सर्वोच्च न्यायालय ने 1954 के बाद से आज तक कभी भी इसकी संवैधानिकता पर बहस क्यों नहीं की? यदि यह भी मान लिया जाए कि 1954 में नेहरू सरकार ने राजनीतिक कारणों से इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल किया था तो फिर किसी भी गैर-कांग्रेसी सरकार ने इसे आज तक समाप्त क्यों नहीं किया?

 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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