सांप्रदायिक सौहार्द को बेहतर बनाने के लिए सार्थक संवाद से बढ़ेगी समरसता, एक्सपर्ट व्यू
सामाजिक धार्मिक मुद्दों का समाधान सिर्फ राजनीतिज्ञों के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसके लिए समाज के संवेदनशील नेतृत्व को भी आगे आना होगा। उम्मीद है आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत (दाएं) और अखिल भारतीय इमाम संघ के प्रमुख इमाम उमर अहमद इलियासी की भेंट से सही संदेश जाएगा। फाइल
डा. सुशील पांडेय। हाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत और कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं एवं बुद्धिजीवियों के बीच महत्वपूर्ण संवाद हुआ। इसमें सांप्रदायिक सौहार्द को बेहतर बनाने और अंतर सामुदायिक संबंधों में सुधार पर चर्चा हुई तथा सहमति बनी कि समुदायों के बीच सांप्रदायिक सद्भाव और सुलह को मजबूत किए बिना देश प्रगति नहीं कर सकता। आगे इस प्रकार की वार्ता द्वारा समाधान निकालने के प्रयासों को भी सहमति दी गई। आज भारत के संदर्भ में यह संवाद न सिर्फ प्रासंगिक है, अपितु भारत को भविष्य का रास्ता दिखाने के लिए एक अनिवार्य पहल है।
प्राचीन काल से ही भारत में अलग-अलग धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, संप्रदाय के लोग निवास करते थे और इन सभी के बीच सद्भाव और सहमति की समस्या बनी रहती थी। मौर्य सम्राट अशोक ने इस समस्या का समाधान धम्म नीति के रूप में प्रस्तुत किया, जिसे सभी समुदायों ने स्वीकार किया, क्योंकि यह मानवीय मूल्यों पर आधारित जीवन पद्धति थी। मौर्य काल के बाद भारत में बड़े पैमाने पर यवन, शक, कुषाण का आगमन हुआ और वे धीरे-धीरे भारतीय समाज का हिस्सा बन गए।
सूफी संतों का प्रभाव
मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के बाद भारत में इस्लाम का आगमन हुआ। अरबों ने भारतीयों से चिकित्सा, दर्शनशास्त्र, नक्षत्र विज्ञान, गणित और शासन प्रबंध की शिक्षा प्राप्त की। यहीं से भारतीयों और इस्लामी जगत के बीच अंतःक्रिया की शुरुआत हुई। भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ इस्लाम का तेजी से प्रचार-प्रसार हुआ। सूफी संतों के प्रभाव से भी इस्लाम तेजी से विकसित हुआ। प्रारंभ में भारतीयों और इस्लाम के बीच संघर्ष की स्थिति रही, लेकिन भक्ति और सूफी आंदोलन के प्रभाव से सांस्कृतिक सामंजस्य स्थापित हुआ।
सूफी संतों ने ईश्वर प्रेम और मानव सेवा द्वारा आम जन को काफी प्रभावित किया। इस प्रकार सूफी, भक्ति आंदोलन ने समन्वय का मार्ग प्रशस्त किया। शैव उप संप्रदाय नाथ संप्रदाय के अनुयायी हिंदू और मुस्लिम, दोनों थे। आज देश के कई स्थानों पर मुस्लिम संप्रदाय के लोग नाथपंथी परंपराओं को स्वीकार करते हैं। धार्मिक सर्वेश्वरवाद और सुलह कुल नीति द्वारा अकबर ने अपने राज्य की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया। आधुनिक काल में भारत में पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी, डेन और अंग्रेज आए।
1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना
अंग्रेजों ने धीरे-धीरे भारत में उपनिवेशवाद की स्थापना की। कालांतर में ब्रिटिश शासन ने अपने हितों के लिए भारतीयों में फूट डालो-राज करो की नीति प्रारंभ की। आरंभ में ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध जन आंदोलन हिंदू और मुस्लिम एकता पर आधारित थे। 1857 के विद्रोह में हिंदुओं-मुसलमानों ने मिलकर ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी थी। इसके बाद अंग्रेजों ने भारत में हिंदुओं एवं मुसलमानों में अलगाव की नीति प्रारंभ की। 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना और 1909 के अधिनियम में मुसलमानों को पृथक निर्वाचक मंडल दिए जाने से अलगाव तेजी से बढ़ा। प्रतिक्रियास्वरूप हिंदुओं में भी धार्मिक आधार पर राजनीतिक संगठन बने।
1919 में प्रारंभ खिलाफत आंदोलन ने भारत में इस्लाम के अंतरराष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा दिया। इसके बाद विभाजन की नींव लगातार गहरी होती गई, जिसका परिणाम द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर देश का विभाजन हुआ। विभाजन के बाद भारत ने अत्यधिक परिपक्वता से अपनी धार्मिक, सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया, पर आपसी संवाद और विमर्श के लिए उचित माध्यम न होने से लगातार संघर्ष होता रहा और देश सांप्रदायिक दंगों से निरंतर जूझता रहा। सांप्रदायिक संघर्ष के कारण न केवल जनहानि हुई, बल्कि पूरी दुनिया में भारत की छवि एक हिंसक देश के रूप में उभर कर सामने आई।
धार्मिक मुद्दों का समाधान
आज अंतरराष्ट्रीय जगत में जिस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं और भारत की योग्यता एवं नेतृत्व की क्षमता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार की स्वीकार्यता मिल रही है उससे स्पष्ट है कि सांप्रदायिक सद्भाव की नीति भारत के लिए अनिवार्य है। आज भारत दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और चतुर्थ औद्योगिक क्रांति का नेतृत्व करने का विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐतिहासिक रूप में भारत में निवास कर रहे सभी जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय के लोगों का योगदान देश के लिए सदैव से रहा है। एक राष्ट्र के रूप में विकसित होने के लिए अनिवार्य है कि सभी धार्मिक, सामाजिक विचारों को समान महत्व दिया जाए और उनके योगदान को स्थान दिया जाए। सामाजिक, धार्मिक मुद्दों का समाधान सिर्फ राजनीतिज्ञों के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसके लिए समाज के बुद्धिजीवियों और संवेदनशील नेतृत्व को आगे आना होगा।
ऐसे प्रयासों और विमर्श को निरंतर आगे बढ़ाने की आवश्यकता है, जिससे सामाजिक, धार्मिक समस्याओं का न सिर्फ उचित समाधान निकले, अपितु एक राष्ट्र ग्रुप में संगठित होने में भी मदद मिले। सांप्रदायिक संघर्ष से कभी समाधान नहीं निकल पाया है। नागरिकों के बीच आपसी विमर्श और सद्भाव से समस्या का समाधान अवश्य निकलेगा। आज अतीत से सीखने की आवश्यकता है और सभी धार्मिक, सामाजिक समूहों को यह स्वीकार करना होगा कि उनकी जीवन पद्धति में अन्य धार्मिक, सामाजिक वर्गों का भी योगदान है। आज भारत पूरी दुनिया में युवा शक्ति के कारण वैश्विक नेतृत्व दे पाने में सक्षम है। आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है कि सभी समुदायों को बराबर का महत्व दिया जाए और राष्ट्र निर्माण में उनकी क्षमता का उपयोग किया जाए। देश के सामाजिक, शैक्षिक विकास और शांति-सौहार्द की दृष्टि से भारत को ऐसे विमर्श को निरंतर जारी रखने की आवश्यकता है।
[ शिक्षक, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ]