Analysis: इतनी उतावली क्यों है कांग्रेस, अाज भी पार्टी में नेतृत्व, नीति और रणनीति के संकट
कांग्रेस का यह उतावलापन ऐसे हर मामले में दिखता है जहां उसकी नजर में नरेंद्र मोदी एवं भाजपा को घेरने का मौका है
[अवधेश कुमार]। यह सामान्य सूत्र है कि जब भी परिस्थितियां आपके प्रतिकूल हों और लंबे समय तक उद्यमों का इच्छित परिणाम न आए तो आप घबराएं नहीं। ऐसे वक्त ही आपके व्यक्तित्व का परीक्षण होता है। सामान्य अवस्था से ज्यादा धैर्य व संतुलन का परिचय दीजिए। बेहतर के लिए लगातार प्रयास करते रहिए। यह सिद्धांत जितना किसी व्यक्ति पर लागू होता है उतना ही संगठनों और संस्थाओं पर भी। दुख की बात है कि कांग्रेस का पूरा आचरण ही इसके विपरीत प्रतीत होता है राजनीति पर गहराई से नजर रखने वालों के लिए पिछले कुछ समय से कांग्रेस का रवैया चिंता में डालने वाला है। वह जिस भी अवस्था में है भाजपा के बाद एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी है।
जो लोग अखिल भारतीय पार्टी को लोकतंत्र एवं देश के हित में मानते हैं उनकी यह भी कामना है कि कांग्रेस फिर से उठ खड़ी हो। अगर दो बड़ी पार्टियां देशव्यापी जनाधार वाली होंगी तो लोगों को चुनाव करने में आसानी होगी। तो जिन्हें भाजपा से परहेज हैं और जो राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचते हैं उन्हें ले-देकर कांग्रेस ही नजर आता है। वे कांग्रेस से संयत और संतुलित व्यवहार की उम्मीद करते हैं। किंतु उसका रवैया ऐसे लोगों को भी निराश कर रहा है। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि लगातार जनाधार खोने, अनेक राज्यों में पराजित होने के बावजूद कांग्रेस संयत, जिम्मेदार और संतुलित पार्टी के रूप में व्यवहार क्यों नहीं कर रही है। जीवन का सामान्य सूत्र है कि जब भी परिस्थितियां लगातार आपके प्रतिकूल हों, लंबे समय तक उद्यमों का इच्छित परिणाम न आए तो आप घबराएं नहीं।
ऐसे समय ही आपके व्यक्तित्व का परीक्षण होता है। सामान्य अवस्था से ज्यादा धैर्य और संतुलन का परिचय दीजिए। बेहतर के लिए सतत प्रयास कीजिए और करते रहिए। यह सिद्धांत जितना व्यक्ति पर लागू होता है उतना ही संगठनों और संस्थाओं पर भी। कांग्रेस का पूरा आचरण ही इसके विपरीत प्रतीत होता है।
आप देख लीजिए। जिस तरह उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश के खिलाफ उसने महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस दिया वह स्तब्ध करने वाला था। उसमें भी जब वाजिब कारणों से उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने उसे खारिज कर दिया तो उसका तेवर उनके खिलाफ भी तीखा था। उसकी ओर से उपराष्ट्रपति के फैसले पर ही केवल सवाल नहीं उठाए गए, बल्कि कहा गया कि उन्हें खारिज करने का अधिकार ही नहीं है। यह भी एक संवैधानिक पद की गरिमा पर सीधा चोट करना है।
कांग्रेस जैसी देश पर सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी का ऐसा व्यवहार किसे परेशान नहीं करेगा? उससे तो महाभियोग प्रस्ताव की अतिवादिता तक जाने की ही कल्पना नहीं की जा सकती थी। उसके बाद वह जिद पर अड़ी है कि उपराष्ट्रपति के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देंगे। इस तरह का उतावलापन उसका हर मामले में देखा जा रहा है। संसद का बजट सत्र का पूरा दूसरा चरण बिना किसी कामकाज के समाप्त हो गया।
कांग्रेस चाहती तो संसद की कार्यवाही चल सकती थी। यहां तक कि अन्य पार्टियों के साथ उसने भी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा कर दी, लेकिन इसे वाकई लाने और बहस तथा मतदान कराने तक का धैर्य वह नहीं दिखा सकी। कठुआ में मासूम बच्ची का शव मिलने के बाद कांग्रेस ने जो रुख अपनाया वह स्थानीय नेशनल कांफ्रेंस तक को पीछे छोड़ गया। यही स्थिति उसकी दलितों के नाम पर आयोजित हिंसक बंद के समय थी। राहुल गांधी ने ट्वीट कर दिया कि नरेंद्र मोदी की दमनकारी नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतरे भाइयों-बहनों को मैं सलाम करता हूं। हिंसा की आलोचना में एक शब्द भी नहीं।
वस्तुत: कांग्रेस का उतावलापन ऐसे हर मामले में दिखता है जहां उसकी नजर में नरेंद्र मोदी एवं भाजपा को घेरने का अवसर हो। हालांकि वाकई यह अवसर है या नहीं, इस पर वह विचार करने को तैयार नहीं है। सीबीआइ न्यायालय के न्यायाधीश लोया की मृत्यु के मामले को मोदी सरकार से खार खाए एनजीओ, एक्टिविस्टों ने एक रंग देने की कोशिश की। लोया के साथ नागपुर आए चार न्यायाधीश कहते रहे कि इसमें संदेह जैसा कुछ नहीं है, लेकिन प्रच्छन्न तरीके से कांग्रेस ने भी उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका डलवा दी।
उच्चतम न्यायालय ने याचिकाओं को खारिज करते हुए याचिकाकर्ताओं को फटकार लगाई और कहा कि न्यायालय के माध्यम से राजनीति साधने की कोशिश हो रही है। उसके बाद देखिए कि फैसला आने के अगले ही दिन सात विपक्षी नेताओं के साथ बैठक करके उसने मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के खिलाफ
महाभियोग के लिए सांसदों के हस्ताक्षरित प्रस्ताव दे दिए। क्या यह सब एक जिम्मेदार, संतुलित राष्ट्रीय पार्टी का व्यवहार है? ठीक है कि आपकी भूमिका विपक्ष की है, लेकिन आपको जनता को यह विश्वास भी तो दिलाना है कि हमारी राजनीति गंभीर एवं ठोस विचार तथा दूरगामी दृष्टि वाली है।
कांग्रेस के नेताओं को यह समझ ही नहीं आ रहा कि ऐसा संदेश दिए बगैर राष्ट्रीय राजनीति में उनकी प्रभावशाली वापसी नहीं हो सकती। दुर्भाग्यवश कांग्रेस में इस सोच के जो लोग हैं वे या तो हाशिये पर हैं या फिर अपनी जगह बनाए रखने के लिए शांत हैं। उनको भी समझ नहीं आ रहा कि आखिर पार्टी हर मामले पर इतने उतावलेपन का परिचय क्यों दे रही है? तो यह प्रश्न अवश्य उठता है कि आखिर कांग्रेस ऐसा क्यों कर रही है? इसका सामान्य उत्तर तो यही है कि जब नेतृत्व के पास गहरी समझ का अभाव हो, राजनीति में उसकी कोई निश्चित विचारधारा नहीं हो, आदर्श नहीं हो, उसमें दूरदृष्टि ही नहीं अपनी जिम्मेदारी का पूर्ण अहसास नहीं हो, समाज की अंतर्धारा को सही तरीके से नहीं समझ सके और उसमें हर हाल में सत्ता पाने की उच्च आकांक्षा हो तो फिर उसका आचरण ऐसा ही होगा।
वास्तव में कांग्रेस लंबे समय से नेतृत्व, नीति और रणनीति के संकट से गुजर रही है। राहुल गांधी को अध्यक्ष बना देने से उसके नेतृत्व का संकट हल हो गया ऐसा सोचना बेमानी होगा। लगता है कि वह खोए हुए जनाधार के लिए काम करने, जनता के बीच जाने, अपनी गलतियों पर आत्ममंथन कर उसे सुधारने, आम जनता की समस्याओं के लिए संघर्ष करने, पार्टी को एक निश्चित वैचारिक पहचान देने आदि से बचना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि भाजपा एवं नरेंद्र मोदी की मुखालफत में हम जितना आक्रामक होंगे, शासन के विभिन्न अंगों को हम जितना लांछित करेंगे, संसद में हंगामा करके उसको नहीं चलने देंगे तो इससे मोदी एवं भाजपा का समर्थन घटेगा तथा हमारा बढ़ेगा। कांग्रेस भूल रही है कि उसके इस रवैये से हर संस्था की साख गिर रही है।
[वरिष्ठ पत्रकार]