भाजपा ने जिस पर किया भरोसा वही बना फांस, जानिए पार्टी के मनोबल के लिए झारखंड की जीत क्यों थी जरूरी
रघुवर दास अधिकतर मानकों पर विफल साबित हुए और इससे बड़ा सबूत कुछ नहीं हो सकता है कि मुख्यमंत्री रहते हुए वह खुद ही पराजित हो गए।
प्रशांत मिश्र, (त्वरित टिप्पणी)। झारखंड में रघुवर दास का नाम दो चीजों के लिए याद रहेगा- भाजपा केंद्रीय नेतृत्व की कृपा से पहली बार पांच साल तक स्थायी मुख्यमंत्री बने रहने के लिए और दूसरी चीज- लगातार आगे बढ़ रही भाजपा को अपने काल में ही बड़ा झटका देने के लिए।
इसे संयोग भी कह सकते हैं कि 2019 के नतीजे से भी कुछ नीचे भाजपा अपने न्यूनतम स्कोर पर तब थी जब रघुवर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष हुआ करते थे। यानी संगठन की कमान उन्हें दी गई थी। इस बार वह मुख्यमंत्री थे, यानी भाजपा के सबसे बड़े चेहरे। केंद्रीय नेतृत्व की ओर से उन्हें बड़ा मौका दिया गया था। यह आशा जताई गई थी कि पार्टी के जनाधार को बढ़ा सकें या नहीं लेकिन थामकर रख सकेंगे। लेकिन उन्होंने भाजपा को सोचने के लिए विवश कर दिया कि नेतृत्व के साथ सबको साधकर चलने की क्षमता, दोस्त बढ़ा सकें या न सही लेकिन दुश्मन न बनाने की मनोवृत्ति, अपने कामकाज से जनता को संतुष्ट करने की योग्यता जरूरी होती है।
अधिकतर मानकों पर विफल साबित हुए रघुवर दास
रघुवर अधिकतर मानकों पर विफल साबित हुए और इससे बड़ा सबूत कुछ नहीं हो सकता है कि मुख्यमंत्री रहते हुए वह खुद ही पराजित हो गए। उस सीट से जहां से वह 1995 से लगातार जीत रहे थे। आश्चर्य नहीं कि अगर केंद्र से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह सरीखे नेताओं ने दम नहीं लगाया होता तो रघुवर के नेतृत्व मे झारखंड भाजपा का ग्राफ कहां रुकता यह नहीं कहा जा सकता है।
महाराष्ट्र और हरियाणा के बाद झारखंड के नतीजों से जाहिर तौर पर भाजपा की पेशानी पर बल आएगा। यह और बात है कि महाराष्ट्र में गठबंधन जीता था लेकिन सहयोगी दल के छल और उसकी जिद ने पासा पलट दिया। हरियाणा में पार्टी को मजबूर होकर एक छोटे दल के साथ चलना पड़ रहा है जो शुरूआत से ऐसे बयान देता रहा है जिससे सरकार की परेशानी कभी भी बढ़ सकती है। लेकिन कम से कम हरियाणा में पार्टी ने सबसे बड़े दल का तमगा नहीं छोड़ा।
रघुवर दास की बारी में जनता ने मुंह फेर लिया
लेकिन झारखंड - इसने तो भाजपा का मनोबल तोड़ दिया। इसी झारखंड में छह महीने पहले भाजपा को 50 फीसद से ज्यादा वोट मिले थे और 14 में से 11 लोकसभा सीटें जीती थी, लेकिन अब क्या हुआ। जाहिर है कि जब मोदी के नेतृत्व की बात आई तो जनता झूमकर आई लेकिन रघुवर की बारी आई तो जनता ने मुंह फेर लिए। यह सच है कि वोट फीसद गिनाए जाएंगे और बताया जाएगा कि भाजपा को इस बार भी 32-33 फीसद वोट मिले हैं। लेकिन यह भी तो सच है कि छह महीने पहले 50 फीसद वोट मिले थे।
भाजपा की हार के यूं तो कई कारण गिनाए जा सकते हैं लेकिन सबसे बड़े कारण खुद रघुवर को माना जाना चाहिए। दरअसल, केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें खुली छूट दी थी। टिकटों के बंटवारे से लेकर अभियान की रूप रेखा बनाने तक।
दोस्त से ज्यादा दुश्मन खड़ा किए
बड़े नेतृत्व का सबसे बड़ा गुण होता है कि वह खुद को और बड़ा करें, दिल से, दिमाग से, व्यवहार से, आचरण से। लेकिन इसके उलट रघुवर दूसरों को छोटा करने में लग गए। असुरक्षा की भावना इतनी हावी रही कि अपने मजबूत मोहरों को ही काटने में लग गए। सरयू राय का प्रकरण सबसे बड़ा है लेकिन इसके अलावा भी उन्होंने झारखंड के चप्पे चप्पे पर अपने दोस्त से ज्यादा दुश्मन खड़े किए। देश में गठबंधन राजनीति का युग चल रहा है। लेकिन जानकार बताते हैं कि झारखंड में रघुवर के कारण ही गठबंधन टूट गया। जबकि विपक्ष में गठबंधन तैयार हुआ। कहा तो यह भी जा रहा है कि उनके अंदर कुछ ऐसे लोगों को पराजित देखने की भी तमन्ना थी जो बाद में दोस्त हो सकते थे।
कहा जाता है कि जैसे राजा वैसी प्रजा। रघुवर का अभिमान, दूसरों के साथ उनका व्यवहार केवल उनतक ही सीमित नहीं था बल्कि उन्हें सलाह देने वाले आइएएस अधिकारी तक का व्यवहार दूसरों के प्रति ऐसा ही होता था। नेतृत्व का एक और बड़ा गुण होना चाहिए, खुद ही नहीं परिवार जनों की छवि और गतिविधि पर भी नियंत्रण। रघुवर इस मामले मे भी विफल रहे। जमशेदपुर की जनता बताती है कि मुख्यमंत्री का भाई भी मुख्यमंत्री से कम नहीं था।
भाजपा के मनोबल के लिए झारखंड की जीत थी जरूरी
अगर काम की बात की जाए तो जिस तरह केंद्र से लगातार निगरानी रखी जा रही थी उसमें काम तो होना ही था। सड़कें बनी, केंद्रीय कल्याणकारी योजनाएं भी पहुंची लेकिन यह स्थानीय नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वह समय रहते और बिना किसी रुकावट के पहुंची या नहीं। फिलहाल झारखंड ने भाजपा केंद्रीय नेतृत्व के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यही खड़ा किया है कि नेतृत्व के चयन से पहले उनकी कठोर परीक्षा जरूरी है। भाजपा के मनोबल के लिए झारखंड की जीत जरूरी थी क्योंकि इसके बाद दिल्ली में भी चुनाव होने हैं और उसके बाद 2020 के अंत में बिहार में जहां जदयू और लोजपा सहयोगी दल हैं। झारखंड में दोनों दल भाजपा से अलग चुनाव मैदान में थे।