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महाराष्ट्र में भाजपा की बढ़त को पचा नहीं पा रही है शिवसेना

शिवसेना भाजपा को हमेशा दूसरे दर्जे पर रखना चाहती थी और ऐसा न होने पर उसने भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया।

By Kishor JoshiEdited By: Published: Wed, 24 Jan 2018 09:03 PM (IST)Updated: Wed, 24 Jan 2018 09:15 PM (IST)
महाराष्ट्र में भाजपा की बढ़त को पचा नहीं पा रही है शिवसेना

ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। शिवसेना महाराष्ट्र में भाजपा को हमेशा दूसरे दर्जे पर ही रखना चाहती थी। पिछले कुछ वर्षों में यह ख्वाब टूट जाने के कारण ही शिवसेना और भाजपा के संबंध बिगड़े और अब शिवसेना ने भाजपा से गठबंधन तोड़ने का निर्णय कर लिया।

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1989 में राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान शिवसेना-भाजपा हिंदुत्व के मुद्दे पर एक साथ आए थे। तभी महाराष्ट्र और केंद्र में गठबंधन करके चुनाव लड़ने का फैसला दोनों दलों ने किया था। चूंकि भाजपा राष्ट्रीय पार्टी थी, इसलिए लोकसभा चुनाव में भाजपा को ज्यादा सीटें देने और क्षेत्रीय दल होने के कारण विधानसभा चुनाव में शिवसेना को ज्यादा सीटें दिए जाने का फैसला हुआ था।

भाजपा को हमेशा दूसरे दर्जे पर रखना चाहती थी शिवसेना

गठबंधन में हुए समझौते के अनुसार विधानसभा चुनाव में राज्य की 288 सीटों में शिवसेना को 171 एवं भाजपा को 117 सीटें देने का फैसला किया गया। जबकि 1980 में अपने गठन के तुरंत बाद हुए चुनावों में भी भाजपा 145 सीटों पर चुनाव लड़कर 14 सीटें जीतने में सफल रही थी। तब उसे राज्य में 9.38 फीसद वोट मिले थे। यही नहीं, भाजपा का पूर्व अवतार जनसंघ तो महाराष्ट्र में 1952 से ही चुनाव लड़ता आ रहा है। उसने 1957 में 1.56 फीसद मतों के साथ चार सीटें, 1962 में 5.90 फीसद मतों के साथ छह सीटें, 1967 में 8.18 फीसद मतों के साथ चार सीटें और 1972 में 6.26 फीसद मतों के साथ पांच सीटें जीती थीं। इतने जनाधार के बावजूद गठबंधन के बाद शिवसेना सूबे की सियासत में भाजपा को हमेशा छोटे भाई का दर्जा देती रही और भाजपा लगातार स्वीकार करती रही।

 भाजपा का जीत का प्रतिशत हमेशा ज्यादा रहा

25 साल के गठबंधन में शिवसेना 58 सीटों पर और भाजपा 19 सीटों पर कभी चुनाव नहीं जीती। 2014 में भाजपा इन्हीं सीटों पर अदलाबदली कर शिवसेना से बराबरी का हक मांग रही थी। लेकिन शिवसेना भाजपा को बराबरी की सीटें नहीं देना चाहती थी। क्योंकि कम सीटों पर लड़ने के बावजूद लड़ी गई सीटों पर भाजपा का जीत का प्रतिशत हमेशा ज्यादा रहा है। शिवसेना को यह डर सताता रहा है कि बराबरी की सीटों पर लड़कर भाजपा ज्यादा सीटें लाएगी और मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा ठोंक देगी।

विधानसभा चुनाव में करारी हार को हजम नहीं कर पा रही है शिवसेना

केंद्र में पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार बनने के बाद बदले समीकरणों में भाजपा बराबरी से कम पर लड़ने को तैयार नहीं थी। भाजपा नेतृत्व चाहता था कि बराबरी की सीटों पर लड़कर जिसकी सीटें अधिक आएं उसी का मुख्यमंत्री बने। शिवसेना को यह शर्त मंजूर न होने के कारण ही विधानसभा चुनाव में गठबंधन टूट गया। भाजपा 257 सीटों पर लड़कर भी 122 सीटें जीतने में सफल रही। जबकि शिवसेना सभी सीटों पर लड़कर भी 62 सीटें ही ला सकी थी। शिवसेना को यही करारी हार हजम नहीं हो रही है। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों में शामिल रहते हुए भी वह भाजपा की आलोचना करती आ रही है। अब उसने चुनाव से काफी पहले ही अकेले लड़ने का भी फैसला कर लिया है।


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