मोदी सरकार का विकल्प बनने के लिए संघर्ष करता बिखरा विपक्ष
केंद्र के साथ सूबों की सियासत में भाजपा के बढ़ते राजनीतिक वर्चस्व को विपक्ष की ओर से थामने के लिए तमाम क्षेत्रीय दल इन चार सालों में कांग्रेस की ओर देखते रहे।
संजय मिश्र। बीते चार साल में राजनीति की करवटें जिस तेजी से बदली हैं, उसमें यह सवाल उठने लगा है कि आखिर विपक्ष कहां है। विपक्षी राजनीति को मुखर और व्यापक आधार देने की पूरी जिम्मेदारी कांग्रेस की थी। मगर 2014 के चुनाव में 44 सीटों तक सिमट जाने का सदमा इतना गहरा रहा कि कांग्रेस इन चार सालों में इससे उबरने के संघर्ष से ही जूझती रही है। कांग्रेस के लिए यह राजनीतिक सदमा लोकसभा में आधिकारिक विपक्ष की हैसियत गंवाने तक ही सीमित नहीं रहा। चार सालों में कई राज्यों में एक-एक कर पार्टी की सत्ता छिनती चली गई। पिछले साल उत्तरप्रदेश विधानसभा में तो इतनी बुरी गत हुई कि कांग्रेस दहाई का आंकड़ा नहीं छू पाई और उसकी हैसियत कुछ जिलों की पार्टी अपना दल से भी घट गई। केंद्र के साथ सूबों की सियासत में भाजपा के बढ़ते राजनीतिक वर्चस्व को विपक्ष की ओर से थामने के लिए तमाम क्षेत्रीय दल इन चार सालों में कांग्रेस की ओर देखते रहे। मगर राज्यों में सिकुड़ते आधार की वजह से कांग्रेस इन दलों की उम्मीद के हिसाब से संगठित और मजबूत विपक्ष का स्वरूप पेश नहीं कर पाई।
कांग्रेस की इन राजनीतिक मुश्किलों को देखते हुए ही एक समय यह सवाल उठने लगा कि वास्तव में अगले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी को कोई चुनौती मिलेगी भी क्या? इसी बेचैनी में कुछ क्षेत्रीय दलों तेलंगाना राष्ट्र समिति और तृणमूल कांग्रेस ने कुछ समय पूर्व भाजपा से मुकाबले के लिए तीसरे मोर्चे की तान छेड़ी। तीसरे मोर्चे के इस सुर ने कांग्रेस को सदमे से आगे खतरे की घंटी का अहसास कराया है। इस खतरे को भांपते हुए ही कर्नाटक के हालिया चुनाव के बाद कांग्रेस ने जनता दल सेक्यळ्लर को सीएम की कुर्सी सौंपने का आनन-फानन में फैसला लिया। विपक्षी राजनीति के लिए वैकल्पिक नेतृत्व के चेहरे का स्पष्ट नहीं होना भी विपक्ष की बड़ी कमजोरी रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा ने नेतृत्व के चेहरे की अहमियत को जिस तरह स्थापित किया है, उसमें विपक्ष के लिए मोदी के मुकाबले का चेहरा तलाशने की राह आसान नहीं रही है।
सोनिया गांधी यूपीए की कमान संभालती रहीं, मगर कुछ मौकों को छोड़ उनकी राजनीतिक सक्रियता कम ही रही। जबकि राहुल गांधी के नेतृत्व की स्वीकारोक्ति पर कुछ बड़े क्षेत्रीय दलों में संशय का सवाल बना रहा है। ममता बनर्जी से लेकर मुलायम सिंह और मायावती से लेकर शरद पवार जैसे नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी समय-समय पर प्रकट होती रही है। कर्नाटक चुनाव के बाद भाजपा के खिलाफ विपक्षी गोलबंदी का पहला मजबूत स्वरूप देखने को जरूर मिला है। मगर जहां तक विपक्षी नेतृत्व का सवाल है तो अभी वैकल्पिक चेहरे पर सहमति बननी बाकी है। कांग्रेस के साथ अधिकांश क्षेत्रीय दलों की बन रही गोलबंदी में भले ही सामाजिक समीकरण की कसौटी पर विपक्ष का आधार मजबूत दिखाई दे, मगर यह भी हकीकत है कि केवल सामाजिक समीकरण से चुनाव नहीं जीते जा सकते। विपक्ष की इस नई गोलबंदी में अभी तीन बड़े क्षेत्रीय खिलाड़ी बीजू जनता दल, अन्नाद्रमुक व टीआरएस शामिल नहीं हैं।
मौजूदा लोकसभा में इन तीनों पार्टियों के पास करीब 70 से ज्यादा सीटे हैं, जो राजनीतिक तराजू का संतुलन किसी ओर मोड़ सकते हैं। कांग्रेस और कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के लिए सूबों की सियासत के आपसी अंतर्विरोध से उबरने की चुनौती भी कम नहीं है।
चुनावी मैदान में विपक्ष बेशक भाजपा की सियासत को भेद नहीं पाया हो मगर संसद में विपक्षी गोलबंदी ने एनडीए सरकार को चुनौती का अहसास कराया है। राज्यसभा की ताकत के सहारे भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल और नोटबंदी से लेकर कश्मीर के हालात जैसे मसलों पर कड़ी चुनौती पेश की। रोजगार और अर्थव्यवस्था को सियासी बहस के केंद्र में लाने में विपक्ष कामयाब रहा। विपक्षी राजनीति की चार सालों में जो जमीनी स्थिति रही थी, उसमें ऐसी चर्चाएं होने लगी थीं कि विपक्ष को 2019 नहीं, 2024 के चुनाव के बारे में सोचना चाहिए। मगर कर्नाटक से मिली सियासी संजीवनी के बाद विपक्ष की ओर से नरेंद्र मोदी को चुनौती पेश किए जाने की शुरू हुई चर्चा वास्तव में मौजूदा हालत में विपक्षी खेमे के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है।