राहुल को तय करनी होगी अपनी भी सीमा, राष्ट्रीय हित की अनदेखी पड़ सकती है भारी
राहुल को अब तक तो अहसास हो ही जाना चाहिए कि विश्वविद्यालय के विद्यार्थी हों या खेत जोतने वाले किसान, राष्ट्र गौरव सबमें सबसे ऊपर है।
[ प्रशांत मिश्र ]। कुछ महीने पहले की ही बात है, पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी नागपुर के संघ मुख्यालय गए थे। भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर बोले तो हर किसी को श्रेय दिया। उस वक्त कांग्रेस के अंदर उफान मचा हुआ था। कुछ तो खुलकर आलोचना कर रहे थे और राहुल गांधी चुप थे। उन्होंने न तो प्रणब का बचाव किया था और न ही उनके फैसले पर सवाल उठाने वालों को फटकारा था। यह वही प्रणब थे, जो कांग्रेस के लिए वर्षो तक संकट मोचक और मार्गदर्शक थे। जो भारतीय राजनीति में सबसे ज्यादा सुलझे हुए नेताओं में शामिल रहे हैं, लेकिन राजनीति में शुचिता की बात करने वाले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस पुराने कांग्रेसी से भी कुछ नहीं सीखना चाहते हैं। कांग्रेस के हालात को बदलने की कोशिश और कुछ हद तक हताशा में वह उस पुराने राजनीतिक आदर्श को भी बदल देना चाहते हैं, जिसमें यह तय था कि देश के बाहर सब पहले भारतीय हैं।
क्या भाजपा हटाओ -मोदी हटाओ के अभियान में वह किसी भी स्तर पर जाकर कुछ भी बोलने के लिए तैयार है? और क्या वह आश्वस्त हैं कि यह फैसला आत्मघाती नहीं हो सकता है? केरल बाढ़ की विभीषिका से गुजर रहा है। ऐसे में राहुल गांधी जर्मनी और ब्रिटेन के दौरे पर हैं। इसी बीच खुद केरल के सांसद शशि थरूर भी विदेश के दौरे पर गए थे, जो विवाद में भी घिरा था। खैर इन दौरों में राहुल ने जो कुछ कहा वह चिंतनीय है और उस पर एक बार शायद कांग्रेस कार्यसमिति के वरिष्ठ नेताओं को विचार करना चाहिए।
भारत पड़ोस से उपजे और पाले पोसे गए आतंकवाद से जूझ रहा है और राहुल संघ को आतंक की जड़ बता रहे हैं। उन्होंने संघ की मुस्लिम ब्रदरहुड से तुलना कर दी। कुछ वर्ष पहले वह जेएनयू में कथित रूप से 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' जैसे शर्मनाक नारे लगाने वालों के कार्यक्रम में भी दिखे थे। इससे पहले विकिलीक्स के एक केबल में कहा गया था कि उन्होंने अमेरिकी अधिकारियों से कहा था कि खतरा आइएस से नहीं, हिंदू आतंकवाद से है। क्या राहुल गांधी पाकिस्तान को मौका नहीं दे रहे हैं? विदेशी जमीन पर मुख्य विपक्षी दल के नेता की ओर से यह कहना क्या हमारी लड़ाई को कमजोर नहीं करेगा?
उन्होंने बेरोजगारी को भी आतंकवाद से जोड़ा था। क्या उनकी समझ इतनी ही है.? क्या वह अब तक नहीं समझ पाए हैं कि कट्टरता और देश को तोड़ने की मंशा तो उनमें ज्यादा है, जो समृद्ध हैं। ओसामा बिन लादेन क्या गरीबी और बेरोजगारी के कारण पैदा हुआ था? वह धनाढ्य घर में पैदा हुआ और शिक्षा से इंजीनियर था। राहुल की जानकारी के लिए आइएस का सरगना बगदादी पीएचडी है, जवाहिरी सर्जन और भारत को तोड़ने के लिए अपनी आतंकी नर्सरी को सींच रहा हाफिज सईद एक प्रोफेसर है। कोई भी न तो गरीब है और न ही बेरोजगार। जिन भटके हुए भारतीय युवाओं को उन लोगों ने भरमाया था वे भी पढ़े-लिखे संपन्न घरानों से ही थे।
क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी के मुखिया को यह पता नहीं है कि यह विचारधारा की लड़ाई है? क्या राहुल अब तक नहीं समझ पाए हैं कि देश की वीरांगना और उनकी दादी इंदिरा गांधी की हत्या के पीछे गरीबी और बेरोजगारी नहीं, देश को विभाजित करने वाली विचारधारा थी। यह और बात है कि उस संकट की स्थिति में भी कांग्रेस नेता राजीव गांधी की ओर से जिस तरह का बयान आया था, उससे देश जला था। उसने एक समुदाय को लंबे वक्त के लिए समाज से काट दिया था।
हमारी न्याय व्यवस्था ने दोषियों की पहचान कर उसे सजा भी दी थी। अफसोस कि राहुल भी यह नहीं समझ पा रहे हैं। राहुल एक राजनीतिक दल के मुखिया हैं और ऐसे वक्त में यह जिम्मेदारी मिली है, जब पार्टी अपने निम्नतम स्तर पर है। वह खुद भी अभी तक अपनी क्षमता सिद्ध नहीं कर पाए हैं। उनकी छटपटाहट समझी जा सकती है। ऐसे में वह देश के अंदर चुनावी रैलियों में पार्टी का जनाधार बढ़ाने के लिए चाहे जो बोलें तो समझा जा सकता है, लेकिन देश के बाहर, विदेशी जमीन पर ..।
वह देश का भी नुकसान करेंगे और अपनी पार्टी का भी। राहुल को अब तक तो अहसास हो ही जाना चाहिए कि विश्वविद्यालय के विद्यार्थी हों या खेत जोतने वाले किसान, राष्ट्र गौरव सबमें सबसे ऊपर है। महागठबंधन में नेतृत्व के लिए अपनी स्वीकार्यता सिद्ध करने की लड़ाई तो राहुल को लड़नी ही होगी, लेकिन सीमा भी उन्हें ही तय करनी होगी। सीमा के पार हाथ जलाने के अलावा कोई विकल्प शायद न रहे।