देश का विकास, समस्या एक कारण अनेक
देश की राजनीति में जाति, मजहब और भाषा का घालमेल तेजी से बढ़ रहा है। दूसरे भी इससे अछूते नहीं।
नई दिल्ली (जेएनएन)। अपनी विविधता के लिए पहचाने जाने वाले भारत में कहावत है कि ‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वानी।’ इसी विविधता का इस्तेमाल राजनेता अब अपनी राजनीतिक छवि चमकाने में करने लगे हैं। विकास तो अधिकांश के बस का नहीं रहा तो जीतने के लिए दूसरे हथकंडे उन्हें आसान लगते हैं। यही कारण है कि देश की राजनीति में जाति, मजहब और भाषा का घालमेल तेजी से बढ़ रहा है। दूसरे भी इससे अछूते नहीं। ब्रिटेन में वोटिंग वर्ग (क्लास) के आधार पर होती है। अमेरिका में यह नस्ल (रेस) के आधार पर तय की जाती रही है।
बड़ा हथियार
किसी भी लोकतंत्र में गरीब और वंचित तबके के लिए मतदान एक बड़ा हथियार है। कई सामाजिक अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि जिन जातियों की सामाजिक और आर्थिक हैसियत हाशिए पर ज्यादा होती है उनके लिए वोट की अहमियत ज्यादा होती है। वे अपनी वोटिंग ताकत की बदौलत अपने जीवन स्तर में सुधार की मंशा रखते हैं। कई बार इसीलिए उन्हें यह लगता है कि उनकी जाति का उम्मीदवार या उनकी जाति की खैरख्वाह पार्टी उनका ज्यादा कल्याण कर पाएगी। लिहाजा वे भी उस मानसिकता से उबर नहीं पाते हैं।
प्रवृत्ति की शुरुआत
पिछली सदी के आखिरी दशक में देश की जातीय राजनीति में बदलाव शुरू हुआ। लगातार वर्षों से सत्तासीन रही कांग्रेस बिखरने लगी थी। अधिकांश अगड़ी जातियों से बना यह दल अब अपनी चमक खो रहा था। दरअसल उदारीकरण के चलते अर्थव्यवस्था मुक्त हो चुकी थी। पिछड़ी जातियों और जाति आधारित ऐसे दलों का उभार हुआ जिनके एजेंडे में पिछड़ों का उत्थान रहा। ऐसे दल न केवल राष्ट्रीय स्तर पर उभरे बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर भी इनकी पकड़ मजबूत रही।
आर्थिक विषमता
2015 में एथनिक इनइक्वालिटी एंड द एथनीफिकेशन ऑफ पार्टी सिस्टम: इवीडेंस फ्राम इंडिया नाम से तैयार हुए वर्ल्ड पॉलिटिक्स पेपर से जाति और राजनीति की तह में जाने का प्रयासकिया गया है। इसमें बताया गया है कि किसी भी व्यवस्था में जातियों का कल्याण स्तर उनके वोटिंग पैटर्न को प्रभावित करता है। जहां कुछ जाति के लोग अमीर और कुछ जाति के लोग गरीब होते हैं तो वहां की राजनीति में जाति का असर ज्यादा देखा जाता है। इसके अलावा जब समूह में लोगों की आर्थिक हैसियत अलग-अलग होती है तो अलग-अलग नीतियों के प्रति उनका झुकाव जुदा होता है। नतीजतन मतदाता खुद अपनी चुनावी पहचान तय कर लेते है।
पहचान का प्रदर्शन
लोकनीति-सीएसडीएस द्वारा 1999 और 2004 के चुनावों के आंकड़ों के आधार पर किए गए इस शोध में यह भी पता लगाया गया कि लोगों के वोट देने के आधार में जाति या उपजाति किस हद तक मायने रखती है। अध्ययन के अनुसार जिन राज्यों में जातियों के बीच आर्थिक विषमता ज्यादा है, वहां मतदाता अपने ही जाति या उपजाति वाले पार्टी सदस्यों को ज्यादा चुनते हैं।
नए समीकरण
जातियों के इतर बन रहे नए गठबंधन कुछ दूसरी ही कहानी कहते दिखते हैं। इस मसले पर हुए एक पुराने शोध के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। 1967 में डीएल सेठ ने एक शोध किया। इसमें देश के अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों के दो हजार से अधिक लोगों से बातचीत की गई। निष्कर्ष में आया कि केवल एक फीसद मामलों में अमुक जाति के नेताओं की सलाह पर वोट करने की बात सामने आई, जबकि परिवार की सलाह पर 46 फीसद और 49 फीसद मामलों में मतदाता खुद के निर्णय से मतदान करता है। जबकि चार फीसद मामलों का आधार नहीं तय हो पाया।
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