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राजनीतिक दलों की माई-बाप होती है जनता, मौका मिलते ही लगा देती है होश ठिकाने

ऐसी आवाजें जोर पकड़ने लगी हैं कि पहले खुद को पाक-साफ करो तब हमारे सामने आओ।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 28 Mar 2018 11:02 AM (IST)Updated: Wed, 28 Mar 2018 04:53 PM (IST)
राजनीतिक दलों की माई-बाप होती है जनता, मौका मिलते ही लगा देती है होश ठिकाने
राजनीतिक दलों की माई-बाप होती है जनता, मौका मिलते ही लगा देती है होश ठिकाने

नई दिल्ली [कपिल अग्रवाल]। आम जनता केसमक्ष साफ-सुथरी छवि व ईमानदारी संबंधी लंबी चौड़ी बातें करने वाले राजनीतिक दलों के लिए अब अपने आपको बदलने का वक्त आ गया है, क्योंकि आम जनता भी अब बदलने लगी है और अपने जनप्रतिनिधियों पर पैनी निगाह रखने लगी है। ऐसी आवाजें जोर पकड़ने लगी हैं कि पहले खुद को पाक-साफ करो तब हमारे सामने आओ। विभिन्न एजेंसियों की रिपोर्ट व मीडिया ने काफी हद तक उन्हें जागरूक कर दिया है और यही कारण है कि जिस प्रकार राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए नए नए हथकंडे आजमा रहे हैं उसी प्रकार अब जनता भी उनको कदम दर कदम परख रही है। चाहे कोई कितना भी बड़ा नेता क्यों न हो, मौका हाथ आते ही उसका सूपड़ा साफ करने में वह जरा भी देर नहीं कर रही।

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केंद्र व राज्यों के पिछले डेढ़ दशक के चुनाव परिणाम बताते हैं कि बड़े-बड़े नाम वाले रसूखदार उम्मीदवारों, यहां तक की मंत्रियों व मुख्यमंत्रियों तक को जनता ने नहीं बख्शा है। राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों के चुनाव आयोग में जमा हलफनामों पर आधारित एडीआर की हालिया रिपोर्ट बताती है कि बड़ी-बड़ी बातों व दावों के बावजूद लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल अब भी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को प्राथमिकता दे रहे हैं। यह सब तब है जब एक जनहित याचिका पर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को इस संबंध में त्वरित ठोस कार्रवाई करने का निर्देश दे रखा है। हालांकि सरकार ने इस बाबत मामलों के त्वरित निपटारे के लिए कुछ विशेष अदालतें गठित कर दी हैं, पर ये नाकाफी हैं और मूल समस्या अब भी बरकरार है।

सर्वोच्च अदालत की यह भी व्यवस्था है कि दो साल से ज्यादा की सजा मुकर्रर होने पर जनप्रतिनिधि की सदस्यता तत्काल प्रभाव से स्वत: समाप्त हो जाएगी, पर जुलाई 2013 से लागू इस व्यवस्था के शिकार गिनती के गिनेचुने वे माननीय ही हुए हैं जिनके सत्ता समीकरण बिल्कुल ही बिगड़ गए थे। तारीख पर तारीख लेकर मामलों को अनंतकाल तक खींचने में माहिर देश के वकील इस बात का भी विशेष ध्यान रखते हैं कि उनके मननीय मुवक्किलों की सजा की अवधि दो साल से कम हो! दरअसल जनता को प्रसन्न करने व उसका विश्वास जीतने के उद्देश्य से बनाई गईं राजनीतिक साफ-सफाई की अधिकांश व्यवस्थाएं न केवल दिखावटी हैं, बल्कि उनमें इतनी ज्यादा कमियां हैं कि उनका होना न होना बराबर है।

राजनीति में अपराधियों के आने के लिए राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य कैसे भी संख्या बल बढ़ाकर सत्ता प्राप्त करना होता है। राजनीतिक दलों ने अपराधियों को राजनीति में फिट करने के लिए एक से एक नायाब तरीके भी अख्तियार कर रखे हैं जिनका पता विभिन्न विश्लेषणों से चलता है। एक विश्लेषण के मुताबिक आपराधिक रिकॉर्ड वाले अधिकांश उम्मीदवार वहां जीते हैं जहां निम्न व अशिक्षित मध्य वर्ग वोटरों की बहुलता थी। नगदी अथवा शराब आदि के प्रलोभन ने उनकी जीत में मुख्य भूमिका अदा की थी। हकीकत तो यह है कि दबे कुचले, गरीब, निम्न वर्ग बाहुल्य निर्वाचन क्षेत्रों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार खड़े करके वोटरों को डरा धमकाकर जीत हासिल करने का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है।

इसके अलावा संख्या बल बढ़ाने के लिए राजनीतिक दल राज्यसभा व राज्यों की विधान परिषदों का भी दुरुपयोग करने से बाज नहीं आ रहे हैं। हालांकि आज जनता काफी हद तक जागरूक होती जा रही है, पर राजनीतिक दल अपनी इस प्रवृत्ति को त्यागने को तैयार नहीं हैं। हकीकत तो यह है कि देश में करीब एक दशक से राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने की मांग निरंतर उठ रही है और इस बाबत तीन सौ से भी ज्यादा सुझाव तथा सिफारिशें सरकार के पास भेजी जा चुकी हैं, पर अभी तक सब पर केवल गहन विचार ही हो रहा है। लगता है कि कोई भी राजनीतिक दल साफ-सुथरा होना ही नहीं चाहता।


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