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पायलट से दूरी के चलते गहलोत केबिनेट की बैठक के बजाय सर्कुलेशन से करते थे फैसले

तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गहलोत व पायलट की दूरियां कम करने का प्रयास किया लेकिन उन्हे भी ज्यादा सफलता नहीं मिली।

By Manish PandeyEdited By: Published: Tue, 21 Jul 2020 12:09 PM (IST)Updated: Tue, 21 Jul 2020 12:09 PM (IST)
पायलट से दूरी के चलते गहलोत केबिनेट की बैठक के बजाय सर्कुलेशन से करते थे फैसले

जयपुर, नरेन्द्र शर्मा। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच सियासी विवाद करीब पौने दो साल पहले विधानसभा चुनाव के दौरान टिकट बंटवारे के समय ही शुरू हो गया था। प्रदेश में कांग्रेस गहलोत व पायलट दो खेमों में बंट गई थी। डॉ.सी.पी.जोशी और भंवर जितेंद्र सिंह जैसे दिग्गज टिकट बंटवारे से पहले तक तो पायलट के साथ थे, लेेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद समय और हालात को देखकर गहलोत खेमे में पहुंच गए। टिकट बंटवारे के साथ ही दोनों में बातचीत बंद हो गई थी, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गहलोत व पायलट की दूरियां कम करने का प्रयास किया,लेकिन उन्हे भी ज्यादा सफलता नहीं मिली।

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पिछले कुछ समय से तो गहलोत ने प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यक्रमों में आना बंद कर दिया था, वहीं पायलट भी गहलोेत को नजरअंदाज करने लगे थे  विधानसभा सत्र के दौरान भी दोनों में आपस में बातचीत नहीं होती थी। पायलट और उनके समर्थक मंत्रियों को दरकिनार करने के लिए गहलोत ने केबिनेट की बैठक तक बुलाना कम कर दिया था,अधिकांश फैसले सर्कुलेशन से हो जाते थे। पायलट के एक विश्वस्त विधायक का कहना है कि आलाकमान तक गहलोत का इतना दखल हो गया था कि वे मनमर्जी करने लगे थे। इस कारण पायलट पिछले छह माह से काफी परेशान थे।

सार्वजनिक रूप से दूरिया नजर आने लगी थी

राजनीतिक हालात के चलते सचिन पायलट मुख्यमंत्री नहीं बन सके थे। लेकिन प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के साथ वे उप मुख्यमंत्री भी रहे। दोनों के बीच टकराव के हालात यह थे कि पायलट चाहे उप मुख्यमंत्री थे, लेकिन वे गहलोत को खुद का नेता मानने को तैयार नहीं थे। वे सरकार के फैसलों में खुद का दखल चाहते थे और गहलोत को यह मंजूर नहीं था। सत्ता में आने के बाद सरकार बनते समय पायलट ने राहुल गांधी के समक्ष अपना पक्ष रखकर अपने पांच समर्थकों को मंत्री बनवा लिया था। अब पायलट चाहते थे कि राजनीतिक नियुक्तियों में उनकी मर्जी चले। लेकिन गहलोत ने अपने राजनीतिक कौशल से पायलट को धीरे-धीरे कमजोर करना शुरू कर दिया। गहलोत ने पहले तो पायलट के विश्वस्त दो मंत्रियों प्रताप सिंह खाचरियावास व प्रमोद जैन भाया को खुद के साथ मिलाया। इसके बाद पायलट के विभागों में खुद की पसंद के अफसर लगाए, जिससे पायलट को काम करने का मौका नहीं मिल सके।

अध्यक्ष पद से हटवाना चाहते थे गहलोत

उपमुख्यमंत्री होने के साथ ही पिछले साढ़े छह साल से प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत की दुहाई देकर गहलोत उन्हे अध्यक्ष पद से हटवाना चाहते थे, लेकिन पायलट दोनों पदों पर बने रहना चाहते थे। पायलट को कमजोर करने के लिए गहलोत ने प्रदेश प्रभारी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव अविनाश पांडे व चारों राष्ट्रीय सचिवों विवेक बंसल,देवेंद्र यादव,तरूण कुमार व काजी निजामुद्दीन को भरोसे में लिया। इन सभी ने वहीं किया जैसा कि गहलोत चाहते थे। आलाकमान को गहलोत की मंशा के अनुसार संदेश पहुंचाते गए ।

गहलोत के मैनेजमेंट के आगे फेल हुए पायलट

दरअसल, 2018 में विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में गहलोत औऱ पायलट खेमों में टकराव शुरू हो गया था। पायलट तब कहा करते थे कि अगर 100 से अधिक सीटें मिली तो मुख्यमंत्री मैं ही बनूंगा। लेकिन गहलोत नहीं चाहते हैं कि कांग्रेस बहुमत में आए। अगर बहुमत मिला तो गहलोत मुख्यमंत्री पद की रेस से बाहर हो जाएंगे। हालांकि परिणाम आए तो कांग्रेस को 200 में से 99 सीटें ही मिली। राहुल गांधी सचिन पायलट को सीएम बनाना चाहते थे, लेकिन अशोक गहलोत को नाराज भी नहीं करना चाहते थे। गहलोत और पायलट के बीच मुख्यमंत्री की कुर्सी का विवाद इस हद तक बढ़ा की आलाकमान को विधायकों से वोटिंग करानी पड़ी। वोटिंग में गहलोत जीत गए और वे मुख्यमंत्री बन गए।


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