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मोदी की विदेश नीति से चीन हुआ पस्‍त और वैश्विक मंच पर बढ़ी भारत की साख

जब चीन ने ओबोर पर अंतरराष्ट्रीय बैठक बुलाई तो भारत एकमात्र राष्ट्र था जिसने कहा कि इस तरह की परियोजनाओं में दूसरे देशों की संप्रभुता का ख्याल रखा जाना चाहिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 22 Aug 2018 01:11 PM (IST)Updated: Wed, 22 Aug 2018 01:24 PM (IST)
मोदी की विदेश नीति से चीन हुआ पस्‍त और वैश्विक मंच पर बढ़ी भारत की साख

नई दिल्ली [जयप्रकाश रंजन]। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार ने परंपरा से हटने का साहस किस हद तक दिखाया है, इसे समझने के लिए हमें उस माहौल को भी देखना होगा जब मोदी ने सत्ता संभाली थी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी का अनुभव एक राज्य के मुखिया के तौर पर ही था। भ्रष्टाचार की वजह से भारत की छवि को लेकर भी सवाल उठ रहे थे। भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता को लेकर भी संदेह जताया जाने लगा था। इस माहौल के बावजूद मोदी ने अपने शपथ ग्रहण में दक्षिण एशिया के सभी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाकर दूरदर्शिता का परिचय दिया।

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इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस के राजकीय मेहमान के तौर पर बुलाने, विदेश यात्रा के दौरान भारतीय समुदाय के लोगों के साथ खासतौर पर मुलाकात करने, चीन की यात्रा के बाद मंगोलिया की यात्रा करने से लेकर हाल के दिनों में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग व कुछ अन्य वैश्विक नेताओं के साथ अनौपचारिक मुलाकात का सिलसिला शुरू करना मोदी की साहसिक कूटनीति के उदाहरण हैं।

पाकिस्तान के आतंकी शिविर पर हमला करना और तमाम अड़चनों के बावजूद सत्ता संभालने के दो वर्षों के भीतर राफेल युद्धक विमान सौदे को अंतिम रूप देना इसी कड़ी में आते हैं। राफेल सौदे को लेकर विपक्ष की तरफ से जो सवाल उठाए जा रहे हैं वे अलग हैं लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत अब अत्याधुनिक युद्धक विमान खरीदने को लेकर ज्यादा देरी नहीं कर सकता।

दरअसल, कूटनीतिक साहस का असर मूलतौर पर देश की आर्थिक व रणनीतिक सफलताओं पर ही दिखाई देता है। खाड़ी देशों के साथ रिश्तों पर राजग सरकार ने खास तौर पर बेहद सक्रियता दिखाई, जिसके परिणाम सामने हैं। भारत उन गिने चुने देशों में है जहां एक तरफ संयुक्त अरब अमीरात के बड़े निवेशक फंड लगाने को तैयार हैं तो दूसरी तरफ इजरायल की कंपनियां महत्वपूर्ण तकनीकी हस्तांतरण करने का समझौता कर रही हैं। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात के बडे़ निवेश फंड्स भारत के ढांचागत क्षेत्र में निवेश की शुरुआत कर चुके हैं। राजग सरकार की पहल की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर जो संशय का दौर था वह अब खत्म हो चुका है।

आर्थिक मोर्चे पर भारतीय अर्थव्यवस्था की साख फिर से बहाल हो गई है। विश्व बैंक से लेकर हाल ही में प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्ट में यह बात स्वीकार की गई है कि आने वाले दिनों में वैश्विक आर्थिक प्रगति की रफ्तार बहुत हद तक भारतीय अर्थव्यवस्था तय करेगी। इन देशों की छोड़ दीजिए, चीन की कंपनियों के लिए भी भारत एक आकर्षक निवेश स्थल बन गया है। जापान सरकार की रिपोर्ट बताती है कि उनकी कंपनियों के लिए आने वाले समय में भारत ही पसंदीदा निवेश स्थल रहेगा। कई मुद्दों पर तनाव के बावजूद भारत व अमेरिका के आर्थिक रिश्तों की गति पर कोई असर नहीं पड़ा है।

द्विपक्षीय कारोबार स्तर 500 अरब डॉलर करने को लेकर दोनों देशों के बीच लगातार संपर्क बना हुआ है। इसी तरह से जब चीन ने वन बेल्ट वन रोड (ओबोर) पर अंतरराष्ट्रीय बैठक बुलाई तो भारत एकमात्र राष्ट्र था जिसने कहा कि इस तरह की परियोजनाओं में दूसरे देशों की संप्रभुता का ख्याल रखा जाना चाहिए। अब अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, जापान, ऑस्ट्रेलिया समेत कई देश यही बात दोहरा रहे हैं। डोकलाम में भी भारतीय कूटनीति की सूझबूझ व साहस को एक साथ देखा गया। भारत एक तरफ जहां इस बारे में दूसरे देशों को सही स्थिति से अवगत भी कराता रहा तो दूसरी तरफ भारतीय सैनिक चीनी सेना के आंख में आंख डाले डटे भी रहे।

राजग के कार्यकाल में भारतीय कूटनीति ने यह स्वीकार किया है कि आने वाले कुछ दशकों तक उसके लिए अमेरिका व चीन सबसे अहम रहेंगे। चीनी राष्ट्रपति चिनफिंग के साथ अनौपचारिक वार्ता करने की मोदी की पहल के पीछे इसी सोच को वजह माना जा रहा है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि राजग सरकार अपनी गलतियों से सीखते हुए नई कोशिश को समय रहते आजमाने का माद्दा रखती है। चीन के साथ तमाम विवादों के बीच हाल के वर्षों में इसके साथ संवाद भी तेजी से बढ़ा है।

मोदी और चिनफिंग के बीच पिछले चार वर्षों में तकरीबन 20 बार द्विपक्षीय मुलाकातें हो चुकी हैं। लेकिन अपने रणनीतिक हितों के साथ भारत उतना ही सजग है। भारत चीन के दूसरे पड़ोसी देशों विएतनाम, मंगोलिया, जापान, दक्षिण कोरिया के साथ गहरे रणनीतिक रिश्तों की नींव पुख्ता कर चुका है। जनवरी, 2018 में पीएम नरेंद्र मोदी की एक साथ आसियान के दस सदस्य देशों (म्यांमार, थाइलैंड, फिलीपींस, विएतनाम, लाओस, कंबोडिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर, ब्रुनेई और मलयेशिया) के प्रमुखों से मुलाकात में रक्षा क्षेत्र पर खास फोकस रहा। यहां भारत यह जताने से नहीं हिचका कि दक्षिण चीन सागर के मुद्दे पर वह यहां के देशों के साथ लंबी रणनीतिक साझेदारी को तैयार है।

अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों की डोर कुछ विवादों के बावजूद बेहद मजबूत हुई है। भारतीय कामगारों को वीजा देने का मुद्दा अभी लटका हुआ है लेकिन इसी दौरान अमेरिका ने भारत को अपना सबसे अहम रणनीतिक साझीदार घोषित किया है। दो हफ्ते पहले ही अमेरिका ने भारत को नाटो देशों की तरह ही सबसे संवेदनशील हथियारों व तकनीकी के हस्तांतरण का रास्ता साफ किया है।

पिछले एक वर्ष में भारत, अमेरिका, जापान व ऑस्ट्रेलिया के बीच हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र में गठबंधन पर दो अहम बैठकें हो चुकी है। सैन्य उपकरणों पर निर्भरता की वजह से भारत के लिए रूस का महत्व अभी भी काफी ज्यादा है। सोची में राष्ट्रपति पुतिन के साथ विशेष बैठक कर मोदी ने द्विपक्षीय रिश्तों में नई गर्माहट भरने की कोशिश की है।

साहसिक कूटनीतिक पहल की वजह से भारत की साख बढ़ी जरूर है, लेकिन लंबी अवधि में उसे इस साख का फायदा तभी मिलेगा जब दुनिया के तमाम देशों को यह भरोसा हो कि भारत उनका नेतृत्व करने में सक्षम है। यह तभी संभव है जब भारत अंदरूनी तौर पर आर्थिक व राजनीतिक रूप से मजबूत हो। एक बड़ी आर्थिक शक्ति बने बगैर भारत की दावेदारी को गंभीरता से कोई नहीं लेगा। यही नहीं, राजग सरकार को दुनिया को यह भी बताना होगा कि भारत सामरिक तौर पर अपनी रक्षा करने में सक्षम है।

दुनिया की एक बड़ी सैन्य शक्ति होने के बावजूद भारत अपनी सैन्य ताकत के लिए दुनिया के तमाम देशों पर निर्भर है। दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब भारत में है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत का स्थान बेहद नीचे है। महिला सुरक्षा व स्वास्थ्य जैसी चुनौतियां भारत के पैर में बेड़ी के समान हैं जो उसे एक बड़ी ताकत बनने से रोक रही हैं। राजग सरकार ने परंपरागत कूटनीतिक मान्यताओं को तोड़ने का जज्बा दिखाया है लेकिन यह अभी शुरुआत भर है। 


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