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MP Politics: सहकारिता को खा रहा प्रशासनिक तंत्र और भ्रष्टाचार का घुन

MP Politics शिवराज सरकार ने पिछले कार्यकाल में इसे बंद करने का निर्णय लिया। दरअसल प्रदेश में सहकारी समितियों का नेटवर्क गांव-गांव तक विकसित करने का मकसद यह था कि छोटी जोत के किसानों को सहायता मिल सके।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 14 Oct 2021 09:43 AM (IST)Updated: Thu, 14 Oct 2021 09:43 AM (IST)
MP Politics: सहकारिता को खा रहा प्रशासनिक तंत्र और भ्रष्टाचार का घुन
सवालों के घेरे में सहकारी संस्थाएं। प्रतीकात्मक

संजय मिश्र। सहकार के बिना नहीं उद्धार- मध्य प्रदेश में सहकारिता का यही मूलमंत्र है। उद्देश्य साफ है कि सहकारिता के माध्यम से उन लोगों को मुख्यधारा में लाया जाए जो खेती, पशुपालन एवं कुटीर उद्योगों के जरिये आर्थिक मजबूती का सपना देख रहे हैं। ऐसे लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से प्रदेश में सहकारिता का जो ताना-बाना बुना गया, वह अब समितियों में पनपे भ्रष्टाचार के घुन और प्रशासनिक तंत्र की बेपरवाही से छिन्न-भिन्न होने लगा है। सहकारी संस्थाएं कंगाल होने लगी हैं और उनकी निर्भरता सरकार पर बढ़ गई है।

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सहकारिता को आंदोलन के रूप में नए सिरे से खड़ा करने के लिए जरूरी है कि सरकार इसमें लगे भ्रष्टाचार के घुन को साफ करे और ऐसी पारदर्शी व्यवस्था बनाए जो संस्थाओं-समितियों की साख मजबूत कर सके और उन्हें पैरों पर खड़ा कर सके। हालांकि शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने सहकारी बैंक अपेक्स बैंक से रुपये की निकासी की अधिकतम सीमा दो लाख रुपये निर्धारित करके इस दिशा में अच्छी पहल की है। निश्चित रूप से इससे सहकारी बैंक में मनमानापन रुकेगा और उन्हें कंगाली के कगार पर जाने से बचाने में मदद मिल सकेगी।

मध्य प्रदेश में सहकारी आंदोलन का विस्तार गांव-गांव तक है। सवा चार हजार से ज्यादा प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों से लाखों किसान जुड़े हुए हैं। इन समितियों के जरिये हर साल दस हजार करोड़ रुपये से ज्यादा ऋण किसानों को उपलब्ध कराया जाता है। खाद और बीज की व्यवस्था भी इन्हीं के माध्यम से की जाती है। समर्थन मूल्य पर गेहूं, धान, चना, मसूर, सरसों, मूंग आदि की खरीद हो या फिर एक करोड़ से ज्यादा परिवारों को प्रतिमाह रियायती दर पर राशन उपलब्ध कराना हो, सरकार सहकारी समितियों के माध्यम से ही व्यवस्था चलाती है। इसके बावजूद सहकारी समितियों की समस्याएं कम नहीं हैं। राजनीतिक दखल और प्रशासनिक प्रबंधन की कमजोरियों के कारण संस्थाओं में नित नए घपले उजागर हो रहे हैं।

हाल ही में झाबुआ जिला सहकारी केंद्रीय बैंक से जुड़ी सहकारी समितियों में किसानों के नाम से फर्जी ऋण निकालने का मामला प्रकाश में आया है। यहां शाखा प्रबंधक ने कर्मचारियों के साथ मिलकर किसानों के नाम पर फर्जी ऋण निकासी दिखाई और उस पर कर्ज माफी का लाभ ले लिया। ग्वालियर और दतिया जिला सहकारी केंद्रीय बैंक की शाखाओं में भी करोड़ों रुपये की गड़बड़ी सामने आई है। शिवपुरी जिला सहकारी केंद्रीय बैंक की कोलारस शाखा में 80 करोड़ रुपये से अधिक का घोटाला पकड़ में आया है। इसके 14 अधिकारियों-कर्मचारियों को निलंबित किया जा चुका है। बालाघाट में भी कृषक पत्रिका के नाम पर घोटाला हो चुका है। किसानों को बताए बिना बैंक की संबद्ध शाखाओं ने उन्हें पत्रिका का सदस्य बना दिया और उनके खाते से सीधे सदस्यता शुल्क काट लिया। सीधी में ट्रैक्टर घोटाला एवं होशंगाबाद में ऋण वितरण में गड़बड़ी सहित कई मामले उजागर हो चुके हैं। इससे सहकारी संस्थाओं की कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में है।

भ्रष्टाचार के कारण ही तिलहन संघ और भूमि विकास बैंक में सरकार को ताले लगाने पड़े हैं। प्रदेश में सोयाबीन के उत्पादन को देखते हुए सरकार ने तिलहन संघ बनाया था। इसके जरिये कई जगह संयंत्र लगाए गए थे और कार्य के लिए बड़ा अमला भी तैयार किया गया था, लेकिन कुप्रबंध के कारण यह धीरे-धीरे कमजोर होता गया। इससे संघ पर आर्थिक बोझ बढ़ता गया और सरकार को इसे बंद करने का निर्णय लेना पड़ा। अब इसकी परिसंपत्तियों को बेचा जा रहा है।

इसी तरह किसानों को लंबे समय के लिए कृषि ऋण उपलब्ध कराने के लिए भूमि विकास बैंक (राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक) की स्थापना की गई थी। इसके अंतर्गत 38 जिला बैंक बनाए गए थे। वे किसानों को सात वर्ष की अवधि के लिए ऋण देते थे। राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते ऋण की वापसी ही नहीं हुई। बैंक के ऊपर कर्ज का बोझ बढ़कर एक हजार करोड़ रुपये से अधिक हो गया। सरकार ने अपनी गारंटी पर बैंक को राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) से ऋण दिलाया था। बैंक की वित्तीय स्थिति को देखते हुए सरकार को इसके ऋण बांटने पर रोक लगानी पड़ी।

शिवराज सरकार किसानों को बिना ब्याज का ऋण उपलब्ध करा रही है। उसकी मंशा यही है कि छोटी जोत के किसानों की सहकारी समितियों के जरिये मदद दिलाकर उनकी लागत घटाई जा सके और उन्हें साहूकारों के चंगुल से बचाया जा सके। इसके बावजूद समितियों की कमजोरियां सरकार के उद्देश्य में बाधक हैं। लिहाजा सहकारी बैंकों के सिस्टम में सुधार की जरूरत है। नियंत्रण का पुख्ता तंत्र भी नहीं है। यही वजह है कि शाखाओं की गड़बड़ियों का पता समय से नहीं लग पाता। जब तक मामले उजागर होते हैं तब तक देर हो चुकी होती है। लगातार मिल रही गड़बड़ियों के कारण ही अपेक्स बैंक से दो लाख रुपये से अधिक की राशि का अंतरण मुख्यालय के मुख्य कार्यपालन अधिकारी की अनुमति के बिना करने पर रोक लगा दी है।

[स्थानीय संपादक, नवदुनिया, भोपाल]


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