दलित हितों की रक्षा के बजाय राजनीतिक फायदा उठाना था भारत बंद का मकसद
भारत बंद का आह्वान कर कुछ सियासी दलों ने सिद्ध कर दिया कि वे अदालती फैसलों को भी राजनीतिक रंग देने में पूरी तरह माहिर हैं।
नई दिल्ली [अरविंद जयतिलक] सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान हटाए जाने के बाद जिस तरह दलित संगठनों की ओर से आयोजित भारत बंद के दौरान हिंसक विरोध में हुआ जान-माल का नुकसान विचलित करने वाला है। हमारे लोकतांत्रिक देश में हर नागरिक व समुदाय को अपनी बात सकारात्मक ढंग से रखने और जनतांत्रिक तरीके से प्रदर्शन करने का अधिकार है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह हिंसक प्रदर्शन पर उतारू हो जाएं। यहां विडंबना यही है कि सोमवार को हुए भारत बंद में यही देखने को मिला। राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात और हरियाणा में बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी की घटनाएं हुईं। यह समझना कठिन है कि जब केंद्र सरकार ने सर्वोच्च अदालत के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करने का भरोसा दिया था और याचिका भी दायर की जा चुकी है तब भारत बंद बुलाने की इतनी हड़बड़ी क्यों आ गई?
धैर्य का परिचय नहीं दे सकते
क्या दलित संगठन थोड़े धैर्य का परिचय नहीं दे सकते थे? बहरहाल ऐसा प्रतीत होता है कि भारत बंद के आह्वान का मकसद दलित हितों की रक्षा के बजाय राजनीतिक फायदा उठाना ज्यादा था। देखा भी गया कि तमाम सियासी दलों ने बढ़ चढ़कर प्रदर्शन का समर्थन किया और अपनी जहरीली बयानबाजी से आग में घी डालकर माहौल को और भड़काया जा सके ताकि केंद्र सरकार पर निशाना साधा जाए। असल में विपक्षी दलों का मकसद दलितों की सहानुभूति अर्जित कर यह दर्शाना था कि केंद्र सरकार दलित विरोधी है। दलित समुदाय को समझना होगा कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय ने हटाया है न कि केंद्र की सरकार ने। भला ऐसे में केंद्र की मोदी सरकार को दोषी कैसे ठहराया जा सकता हैं? लेकिन अजीब तमाशा है कि सभी विपक्षी दल केवल केंद्र सरकार को ही दोषी ठहरा रहे हैं। यह उचित नहीं है।
दलितों पर अत्याचार की घटनाएं दशकों से जारी
दलित समुदाय के साथ विपक्षी दलों को समझना होगा कि दलितों पर अत्याचार की घटनाएं दशकों से जारी हैं। जो सियासी दल आज दलित हितों की चिंता में दुबले हो रहे हैं वे सत्ता का भोग लगा चुके हैं और सत्ता में रहते हुए उन्होंने दलितों के लिए कुछ भी नहीं किया। अगर दशकों पहले दलित उत्पीड़न के खिलाफ बनाए गए कड़े कानून पर सही ढंग से अमल हुआ होता तो आज दलितों पर अत्याचार नहीं होते और न ही उन्हें विरोध प्रदर्शन पर मजबूर होना पड़ता। कांग्रेस से लेकर तमाम सियासी दलों ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए सिर्फ दलितों को मोहरा बनाया है। यहीं वजह है कि दलित उत्पीड़न के खिलाफ सख्त कानून के बाद भी देश के विभिन्न हिस्सों में दलितों का उत्पीड़न जारी है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी कि भारतीय दंड संहिता के तहत दोषियों को सजा मिलने की दर जहां 45 प्रतिशत है वहीं दलितों के मामले में यह दर मात्र 28 प्रतिशत है।
दलित उत्पीड़न चरम पर
यहां ध्यान देना होगा कि जिन राज्यों में गैर भाजपा सरकार हैं वहां भी दलित उत्पीड़न चरम पर है, लेकिन विपक्षी दल यह दुष्प्रचार कर रहे हैं कि भाजपा सरकार में दलितों का उत्पीड़न बढ़ा है। यह सही नहीं है। ध्यान देना होगा कि दलितों पर अत्याचार महज कुछ लोगों के सनक भरे कृत्यों की बानगी भर नहीं है, बल्कि यह प्रवृत्ति समतामूलक समाज के निर्माण की राह में बाधा भी है। दलितों पर अत्याचार मानवीयता और नैतिक बोध के विरुद्ध तो है ही, सामाजिक समरसता की भावना के खिलाफ भी है। यह सच्चाई है कि आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व राजनीतिक स्तर पर दलितों के साथ भेदभाव होता रहता है। यह विभेद महज एक सामाजिक बुराई भर नहीं है, बल्कि मानवीय अपराध और निरंकुश व्यवहार भी है। असभ्यता और उत्पीड़न का प्रतीक भी है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में किसी भी समुदाय पर जाति के नाम पर अत्याचार कलंक है।
पूरी तरह विफल रहे कानून
सबसे त्रसद तो यह है कि दलितों पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए जितने भी कानून बनाए गए हैं या मानवाधिकार के संदर्भ में जो भी प्रयास हुए हैं वे क्रियान्वयन के स्तर पर पूरी तरह विफल रहे हैं। अन्यथा उन पर इस तरह का अत्याचार जारी नहीं रहता। यह स्वीकारने में भी गुरेज नहीं कि भारतीय समाज की सबसे बड़ी समस्या आज भी जातिवाद ही है। इसके जहरीले बीज आज भी समाज में विद्यमान हैं। इसके लिए समाज ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दल भी जिम्मेदार हैं। इसलिए कि लोकतंत्र की बागडोर उन्हीं के हाथों में है। विपक्षी दलों को समझना होगा कि वे अपने सियासी फायदे के लिए दलितों को भड़काकर और केंद्र की सरकार को बदनाम कर अपनी विफलता को छिपा नहीं सकते हैं और न ही दलित आंदोलन की आड़ में हिंसा को बढ़ावा देकर राजनीतिक मुनाफा कमा सकते हैं। अगर वे ऐसा कर रहे हैं तो दलितों का ही नुकसान कर रहे हैं। दलित समुदाय को भी ऐसे दलों की नीयत समझनी होगी।
विरोध की आड़ में अराजकता
ऐसे सियासी दलों और लोगों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए जो विरोध की आड़ में अराजकता का वातावरण निर्मित कर देश को मुश्किल में डालना चाहते हैं। उचित होगा कि सरकार ऐसे लोगों को दंडित करे तथा उनसे सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की भरपाई भी कराए। यह इसलिए भी कि देश की सर्वोच्च अदालत आंदोलन के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने वालों को लेकर पहले ही ताकीद कर चुकी है कि आंदोलन से जुड़े राजनीतिक दलों या संगठनों को नुकसान की भरपाई करनी होगी। उल्लेखनीय है कि न्यायालय ने यह टिप्पणी गुजरात में हुए पाटीदार आंदोलन के अगुआ हार्दिक पटेल की याचिका की सुनवाई के दौरान की थी। न्यायालय ने यह भी कहा था कि वह सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की जवाबदेही तय करने के मानक सुनिश्चित करने के साथ ही ऐसी गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कार्रवाई के लिए दिशा-निर्देश जारी करे। उचित होगा कि विभिन्न राज्यों की सरकारें ऐसे उत्पाती लोगों को दंडित करे और सुनिश्चित करे कि दलितों पर अत्याचार न हो।सरकार पर निशाना साधने से पहले यह समझना होगा कि इसमें परिवर्तन सुप्रीम कोर्ट ने किया है न कि केंद्र सरकार ने
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)