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विशेषः अपेक्षाओं के पहाड़ को फतह करने का आखिरी साल

यही हसरत बार-बार जनता को सबसे प्रबल और प्रखर चेहरे की ओर खींचती है और वर्तमान में यह चेहरा मोदी में ही नजर आता है।

By Sachin BajpaiEdited By: Published: Fri, 25 May 2018 10:51 PM (IST)Updated: Sat, 26 May 2018 10:19 AM (IST)
विशेषः अपेक्षाओं के पहाड़ को फतह करने का आखिरी साल
विशेषः अपेक्षाओं के पहाड़ को फतह करने का आखिरी साल

प्रशांत मिश्र। जनता की हसरतों व सपनों का भार बहुत बड़ा होता है। जाहिर है कि इसके रखवाले के पास दिल भी बड़ा होना चाहिए, बाजू में ताकत भी दिखनी चाहिए और सोच का विस्तार भी असीमित होना चाहिए। चार साल पहले यही प्रतीक नरेंद्र दामोदर दास मोदी में दिखा था तो जनता झूमकर समर्थन में साथ खड़ी हुई थी। पांचवां यानी चुनावी साल शुरू हो चुका है तो उन्हें कसौटी पर कसा जाना स्वाभाविक है। हर मुद्दे पर सवाल लाजिमी है। आखिरकार जनता को यह हक है कि वह पूरा हिसाब किताब ले, अपनी खुशी और गम का इजहार करे, आकलन करे और फिर तय करे कि उसकी आशाओं व अपेक्षाओं पर सरकार कितने नंबर ला पाई है। वैसे यह भी सच्चाई है कि अपेक्षाओं का कोई मापदंड नहीं होता। यह आसमान की तरह असीमित होती है। कुछ और पाने की हसरत लगातार बनी रहती है। यही हसरत बार-बार जनता को सबसे प्रबल और प्रखर चेहरे की ओर खींचती है और वर्तमान में यह चेहरा मोदी में ही नजर आता है।

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बात हो रही है चार साल की तो गिनाने को मोदी सरकार के पास बहुत कुछ है। बदलाव की जिस चाहत के साथ उन्हें कमान सौंपी गई थी वह जमीन पर दिखता है। कार्यशैली से लेकर त्वरित निर्णय की प्रक्रियातक, प्राथमिकता तय करने से लेकर जन भागीदारी बढ़ाने तक और समाज के अंदर बिना तुष्टीकरण बराबरी से विकास की राह तैयार करने तक बदलाव दिखा है। गांव के अंधेरे को चीरती बल्ब की रोशनी और गरीब महिलाओं की आंखों की रोशनी छीनते चूल्हे के धुएं से राहत का बदलाव हर कोई महसूस करता है। वैसे जमीन तक यह बदलाव पहुंचाने में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की बड़ी भूमिका है जिन्होंने सरकार से तालमेल बिठाकर कार्यकर्ताओं की फौज गांव गांव में उतार दी।

खैर, यह सब तो किसी भी संवेदनशील सरकार और कुशल संगठन को करना ही चाहिए। जब मोदी सरकार का आकलन किया जाएगा तो यह मानकर कि इतना तो जनता का हक था क्योंकि इन्हीं अपेक्षाओं पर आखिरकार उन्हें और उनकी पार्टी को तीन दशक बाद पूर्ण बहुमत मिला था। क्या जनता की कसौटी पर इतना पर्याप्त है? या फिर कोई खुद प्रधानमंत्री से पूछे कि क्या वह संतुष्ट हो गए हैैं? दोनों ही स्तर पर शायद उत्तर न में मिले। जीवनशैली कितनी बदली, बटुए की सेहत कितनी दुरुस्त हुई, जनसुरक्षा को लेकर हम कितना आश्वस्त हुए.. ऐसे कई सवाल अभी भी पूछे जाएंगे और सरकार को इसका उत्तर भी देना होगा।

दरअसल मोदी और उनके सिपहसालार भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जानते हैैं कि अपेक्षाओं की सीमा नहीं होती है। और ऐसे में आने वाले साल उनके लिए चुनौतीपूर्ण भी होंगे और संभव है कि जनता के लिए संभावनाओं व सुखद आश्चर्य से भरपूर भी। यह मानकर चलना चाहिए कि आखिरी साल में मोदी के पिटारे मे जनता को देने के लिए बहुत कुछ बाकी है।

कहने को तो अभी चुनाव एक साल दूर है लेकिन राजनीति में जो कसरतें चल रही हैैं उसमें चुनाव की चर्चा और नेतृत्व की क्षमता केंद्र में है। पिछले लोकसभा चुनाव में ही नहीं उसके बाद लगभग हर विधानसभा चुनावों में भी मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के आकर्षण व प्रबंधन क्षमता के सामने विपक्ष शून्य दिखा। इसमें शक नहीं कि विपक्षी दलों में भय व्याप्त है। जो दल व नेता अपने अपने राज्य में बाहुबली बने बैठे थे या हैैं वह भी तिनके का सहारा ढूंढ रहे हैैं। जो सबसे पुरानी पार्टी है वह छोटे छोटे दलों व नेताओं की ओर टकटकी लगाए देख रही है। एक दूसरे का हाथ थामकर ढाढ़स देने की कोशिश है।

भुरभुरी जमीन पर ही सही एकता का जमावड़ा दिखाकर दरअसल खुद को आश्वस्त करने की कोशिश हो रही है कि सबकुछ ठीक है.., खुद को बचा लेंगे.. आदि। यह सच है कि विपक्ष की कमजोरी को अपनी ताकत नहीं मानना चाहिए। जनता की ताकत कभी भी किसी को भी मजबूत या कमजोर कर सकती है। पहले से भी बड़ी जीत का दावा कर रहे शाह भी पांचवें साल में सरकार के प्रवेश के साथ पूरी पार्टी को झोंक रहे होंगे। आजादी के सत्तर-बहत्तर साल बाद ही सही गांव-गांव और घर-घर में पहुंची मूलभूत सुविधाओं का अहसास करा रहे होंगे। आखिरी घंटी बज गई है..। अब यह दिखाना होगा कि नई पारी की कितनी तैयारी है।


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