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Loksabha Election 2019: हार के बाद महबूबा मुफ्ती लेंगी सबक, क्‍या रुख में होगा बदलाव

चुनाव से पूर्व आतंकियों के घरों में चक्कर लगाने और पाकिस्तान परस्त बयानों के बावजूद कश्मीर की जनता ने पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को बड़ा झटका दिया।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Fri, 24 May 2019 08:10 PM (IST)Updated: Fri, 24 May 2019 08:10 PM (IST)
Loksabha Election 2019: हार के बाद महबूबा मुफ्ती लेंगी सबक, क्‍या रुख में होगा बदलाव

वीन नवाज, जम्मू। चुनाव से पूर्व आतंकियों के घरों में चक्कर लगाने और पाकिस्तान परस्त बयानों के बावजूद कश्मीर की जनता ने पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को बड़ा झटका दिया। उनके कड़वे बोल कोई फल नहीं दे पाए और वह स्वयं अपने गृह क्षेत्र में तीसरे स्थान पर खिसक गईं। सवाल पार्टी के अस्तित्व पर आ खड़ा हुआ है। ऐसे में कयास लग रहे हैं कि महबूबा क्या इस हार से सबक ले संवदेनशील मुद्दों से किनारा करेंगी और आम कश्मीरी की आवाज बनने का प्रयास करेंगी? या फिर अलगाववाद के एजेंडे से ही अपनी डूबती नैय्या को संभालने का प्रयास करेंगी?

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भले ही उनकी हार अनेपक्षित नहीं है पर किसी ने नहीं सोचा था कि वह स्वयं तीसरे नंबर पर खिसक जाएंगी। इस संकट में वह कश्मीर का सियासी मैदान छोड़ देंगी, ऐसा कहीं नजर नही आ रहा है। माना जा रहा है कि वह एक बार फिर उन मुद्दों को और अधिक हवा दे सकती हैं जिससे कश्मीर 30 बरस से अधिक समय से झुलस रहा है। इन्हीं मुद्दों ने ही उन्हें कश्मीर की सियासत का प्रमुख खिलाड़ी बनाया है। राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि अलगाववाद के मसले पर वह और अधिक मुखर दिखेंगी।

वर्ष 1999 में अस्तित्व में आई पीडीपी ने वर्ष 2002 में राज्य विधानसभा की 16, वर्ष 2008 में 21 और वर्ष 2014 में 28 सीटें जीती। वर्ष 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में दक्षिण कश्मीर अनंतनाग सीट को जीता। वर्ष 2014 में कश्मीर की तीनों सीटों पर कब्जा करने में सफल रहीं। इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में वह प्रदेश की सत्ता तक पहुंच गईं।

आक्रामक प्रचार और लोगों को सेल्फ रुल का झुनझुऩा दिखाने के साथ वह आतंकियों के परिवारों के साथ खुलकर समर्थन दिखती दिखीं। सुरक्षाबलों के खिलाफ भी वह जहर उगलती रहीं। पर सत्ता के लिए उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद और उन्होंने भाजपा से हाथ मिला लिया। फिर सत्ता में रहते हुए तमाम वादों को किनारे करती गईं। वर्ष 2016 में आतंकी बुरहान की मौत के बाद कश्मीर मे हुए हिंसक प्रदर्शनों में नागरिक मौतों ने उन्हें विरोधियों के निशाने पर ला दिया और अब उसका ही फायदा नेशनल कांफ्रेंस को मिला है।

प्रदेश की सत्ता गंवाने के बाद उन्होंने फिर से उसी अलगाववादी विचारधारा को आगे बढ़ाया। फिर आतंकियों के परिजनों से मुलाकात शुरु की, सुरक्षाबलों की कथित ज्यादतियों के मुद्दे को हवा दी।370 और 35-ए पर खूब हंगामा किया लेकिन पार्टी में मची भगदड़ को वह थाम नहीं पाई, नतीजा संगठन बिखरता गया। ऐसे में विधानसभा चुनाव उनके लिए चुनौती का कारण बन सकते हैं।

स्थानीय सियासी पंडितों के मुताबिक महबूबा लोकसभा चुनाव में अपनी स्थिति को बेहतर समझती थी, इसीलिए उन्होंने विधानसभा चुनाव पर ध्यान केंद्रित कर संगठन के विस्तार पर ध्यान दिया। वह अपना पूरा ध्यान अपने गढ़ रहे दक्षिण कश्मीर पर केंद्रित करना चाहेंगी, क्योंकि इसी क्षेत्र मेंउनका सियासी आधार रहा है।

महबूबा ने सत्ता में रहते हुए सेल्फ रुल का कहीं जिक्र नहीं किया, लेकिन मतगणना से दो दिन पहले एक बैठक में इस मसले को फिर से उठाया।

साफ है कि वह सेल्फ रुल के नारे को अपने पर्स से बाहर निकालने वाली हैं। इसके अलावा उनकी पार्टी का झंडा हरा है और निशान कलम-दवात है। कलम-दवात वर्ष 1987 में मोहम्मद युसुफ शाह के संगठन मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का निशान था। यही मोहम्मद युसुफ आज हिज्ब कमांडर सलाहुदीन है। इसके अलावा जमात के साथ पीडीपी का कभी रणनीतिक समझौता रहा है। इसका फायदा 2014 के चुनाव में पीडीपी को मिला था और नेकां का गढ़ भेद पाई थी। भाजपा से गठजोड़ पर यही मददगार सबसे ज्यादा नाराज था। जमात पर पाबंदी से भी उसे झटका लगा।

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार पीडीपी जमात पर पाबंदी के मसले को फिर से हवा देने की तैयारी में हैं। इसके अलावा वह जेलों में बंद युवाओं के मसले को और हवा देने की रणनीति भी बना रही हैं। इसके अलावा आतंकियों के परिजनों के साथ उनकी सक्रियता और बढ़ेगी। अर्थात साफ है कि पीडीपी अध्यक्ष करारी हार के बावजूद सबक लेने के मूड में नहीं और न वर्तमान में अपनी रणनीति बदलती दिख रही हैं। ऐसे में अलगाववादी एजेंडे पर अपनी लड़ाई और तेज कर सकती हैं।  

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