जानिए कैसे एक दशक में ही अर्श से फर्श पर पहुंची 'कांग्रेस', सोमवार को 136वां स्थापना वर्ष मनाएगी मुख्य विपक्षी पार्टी
संप्रग (UPA) की अगुआई करते हुए 2009 में लगातार दूसरी बार सत्ता में लौटने वाली कांग्रेस बीते दो आम चुनाव में लोकसभा में विपक्ष का आधिकारिक दर्जा हासिल करने लायक सीटें भी जीत पाने में नाकाम रही है।
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस सोमवार को अपनी स्थापना के 136वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। हालांकि, इन दिनों वह अपने राजनीतिक इतिहास के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है। नेतृत्व को लेकर जारी असमंजस, संगठन की कमजोरी और अंदरूनी घमासान के बीच राज्यों की सियासत में हाशिये पर पहुंचने की स्थिति ने कांग्रेस को देश की राजनीति में अर्श से फर्श पर ला खड़ा किया है। बीते एक दशक में चुनौतियों का समाधान निकालने के नेतृत्व के अनिर्णयकारी रवैये ने पार्टी के सामने ऐसी विकट स्थिति पैदा कर दी है कि आज उसे अपने अस्तित्व की चुनौती से जुडे़ सवालों से रूबरू होना पड़ रहा है।
पार्टी के वजूद पर मंडराते सवालों की बेचैनी ही है कि कांग्रेस के सियासी शिखर के साक्षी रहे कई पुराने दिग्गज नेता इस हालत को लेकर आज मुखर हैं और नेतृत्व की नजरों में उन्हें असंतुष्ट माना जा रहा है। मगर नेतृत्व इस सियासी हकीकत से नजरें नहीं चुरा सकता कि संप्रग की अगुआई करते हुए 2009 में लगातार दूसरी बार सत्ता में लौटने वाली कांग्रेस बीते दो आम चुनाव में लोकसभा में विपक्ष का आधिकारिक दर्जा हासिल करने लायक सीटें भी जीत पाने में नाकाम रही है।
2014 में देश के 13 राज्यों में थी कांग्रेस की सरकार
इतना ही नहीं राज्यों की सियासत में भी कांग्रेस का ग्राफ बेहद नीचे चला गया है। 2014 में देश के 13 राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं। लेकिन बीते साढ़े छह वर्ष के दौरान यह आंकड़ा भी तेजी से गिरा है। राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब के अलावा पुडुचेरी केवल इन चार राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं। झारखंड में वह झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ सत्ता की साझीदार है तो महाराष्ट्र में शिवसेना-राकांपा के साथ गठबंधन सरकार में तीसरी पार्टनर। असंतुष्ट 23 नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को अगस्त महीने में लिखे अपने बहुचर्चित पत्र में पार्टी की इस कमजोर हुई राजनीतिक जमीन का ही हवाला दिया था।
2009 के आम चुनाव में 206 सीटें जीती थी कांग्रेस
पार्टी का असंतुष्ट खेमा ही नहीं दूसरे नेता भी अंदरखाने यह मानते हैं कि 2009 के आम चुनाव में 206 सीटें जीतने के बाद कांग्रेस को सत्ता की स्वाभाविक पार्टी मानने की भूल का पार्टी आज बड़ा खामियाजा भुगत रही है। इसका असर यह हुआ कि राज्यों में कांग्रेस का नेतृत्व मजबूत जमीनी नेताओं के बजाय हाईकमान के इर्द-गिर्द मंडराने वाले लोगों के हाथों में सौंपा जाने लगा। यही वजह रही कि चुनाव-दर-चुनाव एक-एक सूबा पार्टी के हाथ से निकलता चला गया। उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में जहां संगठन को मजबूत करना सबसे बड़ी जरूरत थी वहां भी यही फार्मूला चला।
2019 में भी कांग्रेस को मिली करारी शिकस्त
इससे बड़ी हास्यास्पद स्थिति क्या होगी कि तेलंगाना और बिहार जैसे राज्यों के कांग्रेस अध्यक्षों ने लोकसभा चुनाव की नाकामी के बाद इस्तीफा दिया। मगर नेतृत्व की दुविधा ऐसी रही कि बिहार विधानसभा और हैदराबाद नगर निगम के चुनाव तक उनके इस्तीफे मंजूर नहीं हुए। इसीलिए इन दोनों ने डेढ़ साल में दूसरी नाकामी के बाद दोबारा इस्तीफा दिया है। 2019 के आम चुनाव की शिकस्त और राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफे के बाद से तो पार्टी संगठन का ढांचा ही लगभग ध्वस्त है। एआइसीसी का संचालन अधिकतर ऐसे नेताओं के हाथ में है, जिनके जमीनी आधार पर खुद पार्टी जनों को शायद ही भरोसा हो। कांग्रेस के संगठन महासचिव पद पर बैठे केसी वेणुगोपाल केरल की राजनीति में चाहे प्रासंगिक हों, मगर उनके लिए उत्तर, पश्चिम और पूर्वी भारत के नेताओं से प्रभावी संवाद तो दूर सहज मेल-मुलाकात भी दुरूह कार्य है। ऐसे में संगठन के मौजूदा हालात को तत्काल नहीं बदला गया तो कांग्रेस के सामने वजूद बचाने का संघर्ष वाकई बहुत बड़ा होगा।