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महाराष्ट्र हिंसा: इतिहास के पन्नों पर वर्तमान की सियासत

भीमा कोरेगांव युद्ध स्मारक पर सोमवार को उमड़े लाखों दलितों के साथ शुरू हुए मराठा समुदाय के संघर्ष की पृष्ठभूमि दो दिन पहले ही तैयार हो गई थी।

By Sachin BajpaiEdited By: Published: Wed, 03 Jan 2018 11:36 PM (IST)Updated: Wed, 03 Jan 2018 11:37 PM (IST)
महाराष्ट्र हिंसा: इतिहास के पन्नों पर वर्तमान की सियासत
महाराष्ट्र हिंसा: इतिहास के पन्नों पर वर्तमान की सियासत

ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। पुणे से शुरू होकर पूरे महाराष्ट्र में फैलने वाला दलित आंदोलन सिर्फ 200 साल पुराने ब्रिटिश-पेशवा युद्ध से ही संबंध नहीं रखता। यह सियासत गर्माने के पीछे इतिहास के और भी कई पन्नों को उधेड़ा जा रहा है। भीमा कोरेगांव युद्ध स्मारक पर सोमवार को उमड़े लाखों दलितों के साथ शुरू हुए मराठा समुदाय के संघर्ष की पृष्ठभूमि दो दिन पहले ही तैयार हो गई थी।

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पुणे से करीब 30 किलोमीटर दूर अहमदनगर रोड पर स्थित भीमा कोरेगांव के निकट ही वढू बुदरक गांव है। भीमा नदी के किनारे स्थित इसी गांव में औरंगजेब ने 11 मार्च, 1689 को छत्रपति शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र और तत्कालीन मराठा शासक संभाजी राजे भोसले और उनके साथी कवि कलश को निर्दयतापूर्वक मार दिया था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उसी गांव में रहनेवाले महार जाति के गोविंद गणपत गायकवाड़ ने मुगल बादशाह की चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए संभाजी के क्षत-विक्षत शरीर को उठाकर जोड़ा और उनका अंतिम संस्कार किया। इसके फलस्वरूप मुगलों ने गोविंद गायकवाड़ की भी हत्या कर दी थी। गोविंद गायकवाड़ को सम्मान देने के लिए वढू बुदरक गांव में छत्रपति संभाजी राजे की समाधि के बगल में ही गोविंद की समाधि भी बनाई गई है।

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बताया जाता है कि भीमा कोरेगांव में पेशवा-ब्रिटिश युद्ध की 200वीं बरसी धूमधाम से मनाए जाने के अवसर पर वढ़ू बुदरक गांव में गोविंद गायकवाड़ की समाधि को भी सजाया गया था। लेकिन 30 दिसंबर, 2017 की रात कुछ अज्ञात लोगों ने इस सजावट को नुकसान पहुंचाया और समाधि पर लगा नामपट क्षतिग्रस्त कर दिया। स्थानीय दलितों का कहना है कि यह काम मराठा समाज के कुछ उच्च वर्ग के लोगों ने श्री शिव प्रतिष्ठान के संस्थापक संभाजी भिड़े गुरु जी और समस्त हिंदू आघाड़ी के अध्यक्ष मिलिंद एकबोटे के भड़काने पर किया। दलित-मराठा संघर्ष की पृष्ठभूमि में इस घटना का भी बड़ा योगदान माना जा रहा है।

इतिहास के पन्ने पलटें तो 1689 में संभाजी राजे का अंतिम संस्कार करनेवाले गोविंद गणपत गायकवाड़ महार थे। फिर एक जनवरी, 1818 को अंग्रेजों की सेना में रहकर पेशवाओं से युद्ध करनेवाले 600 सैनिक भी महार थे। डॉ. भीमराव आंबेडकर भी महार समुदाय से थे। आजादी के बाद उनके साथ नवबौद्ध बननेवाले करीब पांच लाख लोगों में से अधिकतर महार ही थे। आंबेडकर पहली बार 1927 में भीमा कोरेगांव स्थित युद्ध स्मारक पर गए थे।

अब वषरें बाद इस इतिहास की बुनियाद पर सियासत की कोशिश की जा रही है। भीमा कोरेगांव में सोमवार को लाखों दलितों के इकट्ठा होने से ठीक पहले की शाम पेशवाओं का निवास रहे शनिवारवाड़ा के बाहर यलगार परिषद का आयोजन किया गया। इसमें प्रकाश आंबेडकर के साथ गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवाणी, रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला और जेएनयू के वामपंथी छात्रनेता उमर खालिद शामिल हुए।

मेवाणी ने इस परिषद में भड़काऊ भाषण दिया। भाजपा और संघ को नया पेशवा बताते हुए सभी दलों को उनके विरुद्ध एकजुट होने का आह्वान किया। अगले दिन से ही भीमा कोरेगांव में लाखों दलितों के जमावड़े के बीच मराठा समुदाय के एक युवक की हत्या हो गई। इसकी जांच के लिए राज्य सरकार द्वारा घोषित न्यायिक आयोग अपनी रिपोर्ट में भले कुछ भी कहे। लेकिन इन घटनाओं के राजनीतिक निहितार्थ से तो इन्कार नहीं किया जा सकता।


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