कर्नाटक में येद्दयुरप्पा के सत्ता से हटने को पचा नहीं पाएगा लिंगायत समुदाय
कर्नाटक जैसे हालात में हर बार विजेता राजनीतिक पार्टी अपनी जीत को लोकतंत्र और नैतिकता की जीत बताती है, जबकि हारने वाली पार्टी विजेता गठबंधन को अनैतिक बताते हुए नहीं थकती।
[उमेश चतुर्वेदी] कर्नाटक जैसे हालात में हर बार विजेता राजनीतिक दल अपनी जीत को लोकतंत्र और नैतिकता की जीत बताता है, जबकि हारने वाला विजेता गठबंधन को अनैतिक बताते हुए नहीं थकता। शासन की जो वेस्ट मिंस्टर पद्धति हमने स्वीकार किया है, उसमें मौजूदा लोकतंत्र का लबादा अनिवार्य शर्त बन गया है। लोकतंत्र है तो चुनाव भी होगा और चुनाव के लिए नैतिकता के आवरण को दिखावे के लिए ही सही धारण करना जरूरी होता है। दिलचस्प यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में नैतिकता के दर्शन भी कभी-कभी ही होते हैं। चूंकि परिपाटी है, इसलिए कर्नाटक विधानसभा के पटल पर सबसे बड़ी संख्या वाली भारतीय जनता पार्टी की हार में कांग्रेस या जनता दल सेक्युलर यानी जेडीएस अपनी नैतिक जीत का ढिंढोरा खूब पीट रहे हैं। उन्हें पीटना भी चाहिए, क्योंकि पिछली सदी के सत्तर के दशक से ही इसी तरह नैतिकता को राजनीतिक दल अपनी छवि चमकाने के लिए आवरण बनाते रहे हैं। जिसकी सबसे बड़ी अगुआ कांग्रेस रही है।
नैतिकता की दुहाई
लेकिन क्या सचमुच कर्नाटक में येद्दयुरप्पा की हार कांग्रेस और जेडीएस के लिए नैतिक जीत है? कर्नाटक के लोकतंत्र में सत्ताधारी दल होने के नाते कांग्रेस का 122 से 78 पर पहुंचना सही मायने में उसकी नैतिक हार है। जिस जेडीएस के नेता एचडी कुमारस्वामी के सिर कर्नाटक का ताज सजने जा रहा है, इस लिहाज से उसकी भी जीत नैतिक नहीं हैं। इसलिए कि जेडीएस ने भी कांग्रेस के खिलाफ चुनावी मैदान में ताल ठोकी थी। इसलिए बेहतर तो यह हो कि दोनों नैतिकता की दुहाई न दें। चूंकि राजनीति में भी खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं, इसलिए हकीकत जानते हुए भी दोनों ही दल इस तथ्य को शायद ही स्वीकार करें। दोनों ही दल जानते हैं कि दोनों की जीत नैतिकता और लोकतंत्र के बजाय व्यावहारिकता की जीत है। यह बिडंबना है कि व्यावहारिकता का खेल दरअसल राजनीतिक दलों और उनके अगुआ लोगों के लिए खेला जाता है, लेकिन जामा जनता की भलाई का पहनाया जाता है। गांधी, लोहिया, जयप्रकाश और दीनदयाल के नाम की मौजूदा राजनीति चाहे जितनी भी दुहाई दे ले, लेकिन उनकी सीख को राजनीतिक हलकों ने आत्मसात कम ही किया है।
राजनीति के पुरोधाओं का मानना
राजनीति के इन पुरोधाओं का मानना आज की राजनीति के इन पुरोधाओं का मानना था कि बेहतर साध्य के लिए साधन भी पवित्र होना चाहिए। उन्होंने राजनीति को सेवा का व्रत माना था। जिसके मूल में जनसेवा की भावना थी। गांधी का हिंद स्वराज हो या फिर लोहिया की सप्तक्रांति या जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति या फिर दीनदयाल का अंत्योदय हो, सब में राजनीति सिर्फ जरिया रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश आजादी के बाद कांग्रेस के तत्कालीन पुरोधाओं ने जिस तरह राजनीति का साध्य सिर्फ सत्ता को बना दिया, उसकी वजह से आज हर दल अपने-अपने पुरोधाओं की सीखों को भूल कर राजनीति को सिर्फ सत्ता प्राप्ति के साधन तक सीमित कर लिया है। चूंकि राजनीतिक परिपाटियां कांग्रेस ने ही पुष्पित-पल्लवित किया है, इसलिए इस कर्म के लिए वह सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। इस पूरी प्रक्रिया में राजनीति को पीछे छूटना ही था। इसीलिए फौरी जीत के मद में कांग्रेस के सांसद रहे संजय निरूपम कर्नाटक के राज्यपाल को कोसने लगते हैं। ऐसा कहते वक्त दरअसल वे अपना अतीत भी भूल जाते हैं।
लोकतंत्र की सीमा
कर्नाटक में सत्ता बनाने के लिए येद्दयुरप्पा की आलोचना की जा रही है। चूंकि वे जीत हासिल नहीं कर पाए तो उनकी आलोचना बनती भी है, लेकिन क्या 1996 के बाद एक बार फिर अपने लोकतंत्र ने अपनी यह सीमा नहीं जाहिर की है कि ऐसे हालात से निबटने के लिए वह कितना पंगु है। जब सबसे बड़े दल को महज कुछ सीटों की कमी के चलते विपक्ष में बैठना पड़ता है। इसे भारतीय लोकतंत्र की खुशबू चाहे जितना भी बताया जाए कि निर्दलीय मधु कोड़ा सरकार चलाएं या फिर अकेले जीते हुए रमाकांत खलप केंद्रीय मंत्री बनें। यह लोकतंत्र का प्रहसन ही है। झारखंड में मधु कोड़ा की सरकार ने जो किया, वह इतिहास में दर्ज है और वे खुद जेल की यात्रएं करते रहते हैं। रमाकांत खलप का नाम भी लोग भूल गए हैं।
मौजूदा सिस्टम की खामी
कुछ यूरोपीय देशों और अमेरिका के संविधानविदों ने मौजूदा लोकतांत्रिक सिस्टम की इस खामी का अंदाज पहले ही लगा लिया था, इसीलिए वहां पचास प्रतिशत से ज्यादा मत हासिल करने वाले को ही ताज मिलता है। इसीलिए कुछ देशों में तब तक चुनाव प्रक्रिया की व्यवस्था है, जब तक आखिरी विजेता को पचास फीसद से ज्यादा वोट न हासिल हो जाए। बड़ा दल अगर विपक्ष में बैठे तो वह उस अधिसंख्य मतदाताओं का अपमान होता है, जिनके वोटों की बदौलत वह दल बड़ी जीत हासिल करता है, लेकिन कुछ सीटों की कमी के चलते सत्ता के दौड़ में पिछड़ जाता है और छोटे-छोटे मतदाता समूहों के द्वारा चुने छोटे दल मिलकर सरकार बना लेते हैं। अब वक्त आ गया है कि इस विषय पर भारत सोचे और ऐसे हालात से निकलने के लिए राह तलाशे ताकि भविष्य में अधिसंख्य मतदाताओं के मतों का अपमान ना हो सके।
सत्ता के लिए गठजोड़
बिहार के मार्च-अप्रैल 2005 और मई 1996 के आम चुनावों को याद कीजिए। बिहार में भाजपा-जनता दल यू गठबंधन बड़ा दल बनकर उभरा था, पर उसे बहुमत नहीं मिला था। तब रामविलास पासवान के दल लोकजनशक्ति पार्टी के 23 विधायक जीते थे। उनसे समर्थन मांगने के लिए नीतीश कुमार पीछे-पीछे घूमते रहे, लेकिन पासवान हाथ नहीं आए। इसका असर यह हुआ कि बिहार में नया चुनाव हुआ और इतिहास बदल गया और तब से बदला ही हुआ है। 1996 में केंद्र में 162 सीटों के साथ बड़ा दल बनकर उभरी भाजपा की सरकार को साथ नहीं मिला, लेकिन 1998 आते-आते जवाब में बनी दो-दो सरकारें गिरीं। फिर भाजपा को जीत मिली और वाजपेयी का छह साल तक शासन रहा। कर्नाटक में 2008 में ऐसा चुका है। कुमारस्वामी ने पहले कांग्रेस के साथ 2006 में सरकार बनाई और अपने ही अंतरविरोधों के कारण वह सरकार गिर गई। इसके बाद भाजपा के साथ कुमारस्वामी का समझौता हुआ। जिसमें बीस-बीस महीने दोनों की सरकारें चलनी थीं, पर बीस महीने बाद कुमारस्वामी ने सत्ता छोड़ने से इन्कार कर दिया। फिर भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया। तब 2008 में हुए चुनावों में भाजपा को बहुमत मिला।
गोलबंदी के आसार
कर्नाटक के हालात में येद्दयुरप्पा के सत्ता से हटने को राज्य का सबसे प्रभावी लिंगायत समुदाय पचा नहीं पाएगा। इतना ही नहीं कांग्रेस के टिकट पर जीत कर आए लिंगायत समुदाय के विधायक भी कुमारस्वामी को अभी भले ही पसंद करें, लंबे वक्त तक उनकी पसंद नहीं बनी रहने वाली है। फिर ताकतवर और चोट खाई भारतीय जनता पार्टी चुप नहीं बैठने वाली। वैसे इसका एक फायदा यह नजर आएगा कि कर्नाटक अब दो-तरफा गोलबंदी की ओर बढ़ेगा। ऐसे में अगर कांग्रेस का आधार छीज जाए तो हैरत नहीं होनी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे पड़ोसी तमिलनाडु में हो चुका है। इसका असर लोकसभा चुनावों पर जबर्दस्त तरीके से पड़ेगा। वैसे कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी से डरे सभी छोटे दल चाहेंगे कि कांग्रेस-जेडीएस का गठबंधन जारी रहे ताकि 2019 के आम चुनावों में मोदी को हटाने की मजबूत रणनीति और आधार बन सके। इस वजह से यह गठबंधन बचाने की कोशिश जारी रहेगी, लेकिन कुमारस्वामी का अतीत जैसा रहा है, उसमें इतनी उम्मीद पालना बेमानी ही होगा। आखिर में हारेगी कर्नाटक की जनता ही। जाहिर है कि इस हार से उसे बचाने के लिए ऊपर उठाए गए सवालों से जूझना होगा और उनका हल ढूंढने के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे।
[लेखक वरिष्ठे पत्रकार हैं]