कैराना उपचुनाव: सीट हाथ से निकलने का हो चुका था आभास, हार का अंतर घटाने में जुटी रही भाजपा
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव पूरे प्रदेश से मुस्लिम राजनीति हाशिये पर आ गई थी।
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। ऐसा नहीं कि भाजपा को उत्तर प्रदेश की कैराना सीट के नतीजों का अहसास नहीं था। पार्टी को यह पहले ही पता चल चुका था कि बाजी हाथ से निकल रही है। ऐसे में पूरी कोशिश यह थी कि विपक्षी खेमे के साझा उम्मीदवार के रूप में उतरी रालोद प्रत्याशी की जीत का मार्जिन बहुत बड़ा न होने पाये। एकजुट विपक्ष और वोटों के समीकरण में पार्टी पिछड़ गई थी।
नतीजों के कारण कई थे। गन्ना उत्पादक कैराना संसदीय क्षेत्र की सबसे बड़ी शामली की चीनी मिल से किसानों को भुगतान न के बराबर ही हुआ, जिसकी नाराजगी भी भारी पड़ी। गन्ना मूल्य का बकाया चुकाने में राज्य सरकार की कोशिशें नाकाम रहीं। चालू पेराई सीजन के बकाया की जगह भाजपा बीते सालों के भुगतान की राग अलापती रही। विपक्षी दलों ने सियासी परिपक्वता का परिचय देते हुए मुस्लिम प्रत्याशी तबस्सुम हसन को रालोद के टिकट पर मैदान में उतारा, जिसकी काट भाजपा के पास नहीं थी।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव पूरे प्रदेश से मुस्लिम राजनीति हाशिये पर आ गई थी। राज्य की बड़ी मुस्लिम आबादी के नेता संसद और राज्य विधानमंडल से बाहर हो गये, जिसका अफसोस मुस्लिम मतदाताओं को कराने में विपक्ष सफल रहा। चुनाव प्रचार के दौरान इसका एहसास भाजपा को हो गया था। लोकसभा चुनाव से पूर्व पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुस्लिम-जाट मतदाताओं के बीच जबर्दस्त दूरी बन गई थी। उप चुनाव इसका ठीकरा सपा और बसपा पर फूटता भी, लेकिन दोनों दलों ने इसे भांपकर ही चुनाव प्रचार से दूरी बना ली। भाजपा की मेहनत पर उनकी यह सियासी चाल ने पानी फेर दिया।
उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के स्थानीय नेता व रालोद के बड़े नेता जहां केंद्र और राज्य की योगी सरकार को लोकल और राष्ट्रीय मुद्दों पर घेर रहे थे वहीं भाजपा मुद्दों के लिए जूझती नजर आई। इसी बीच अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर का मामला सामने आया, जिसे रालोद ने लपक लिया।
कैराना संसदीय क्षेत्र में सर्वाधिक 16 लाख मतदाताओं का अंकगणित भी भाजपा को उल्टा पड़ रहा था। इनमें साढ़े पांच लाख मुस्लिम, पौने तीन लाख दलित और लगभग दो लाख जाट मतदाता हैं। भाजपा के सामने विपक्ष का साझा प्रत्याशी होने से मतों के बंटने के आसार समाप्त हो चुके थे। भाजपा के स्थानीय नेताओं को चुनाव में तवज्जो नहीं देना भी पार्टी पर भारी पड़ा।