जानिए आखिर क्यों और कैसे युवा देश की राजनीति में हाशिए पर नौजवान
विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी वाले भारत में चुनाव में हर दल की नजरें भले ही युवाओं पर रहती हो, लेकिन उन्हें हिस्सेदारी देने की बात हो तो भरोसा कम है।
नई दिल्ली [आशुतोष झा]। विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी वाले भारत में चुनाव में हर दल की नजरें भले ही युवाओं पर रहती हो, लेकिन उन्हें हिस्सेदारी देने की बात हो तो भरोसा कम है। विश्वास की कमी राजनीतिज्ञों में भी है और शायद जनता में भी। हाल में संपन्न गुजरात और हिमाचल प्रदेश का हवाला लें तो सभी दलों को मिलाकर मैदान में महज पांच फीसद युवा उम्मीदवार थे। जीते एक तिहाई से भी कम। 35 से कम उम्र के कुल 25 उम्मीदवार उतारे गए थे, जीत केवल आठ की हुई।
पिछले वर्षों में और खासकर 2014 लोकसभा चुनाव के वक्त से चुनाव के प्रति युवाओं का रुझान तेज हुआ है। भाजपा, कांग्रेस समेत दूसरे दलों की ओर से भी उनके महत्व को समझते हुए ही विशेष प्रयास भी किए जा रहे हैैं। दरअसल यही वह वर्ग है जो मैदान में किसी दल के लिए माहौल भी बनाता है और दिशा बदलने की क्षमता भी रखता है। अगर आंकड़ों की बात हो तो हर साल केवल 18-19 वर्ग आयु के ही तीन फीसद मतदाता बढ़ जाते हैैं। राज्यवार इनका औसत भी इसके ही आसपास होता है। जबकि झारखंड, दमन दीव, नगर हवेली जैसे राज्यों में यह बढ़ोत्तरी लगभग दस फीसद के आसपास भी देखी गई है।
वर्ष 2009 और 2014 लोकसभा चुनाव के बीच के चुनाव आयोग के आंकड़ों को ही आधार मान लिया जाए तो अधिकतर बड़े राज्यों की हर विधानसभा सीट पर औसतन 20-40 हजार वोटरों की संख्या बढ़ी और यह सभी नौजवान थे। अधिकतर बढ़े राज्यों में अगर 35 आयुवर्ग के युवा मतदाताओं की संख्या गिनी जाए तो यह लगभग 30-35 फीसद होते हैैं। लेकिन राजनीतिक दलों के लिए ये कार्यकर्ता के रूप में ज्यादा प्रभावी माने जाते हैैं और किन्हीं न किन्हीं कारणों से चुनावी मैदान में पुराने अनुभवी लोगों को ही प्राथमिकता मिलती है।
गुजरात में कुल 182 विधानसभा सीटें हैैं। इनमें से कांग्रेस से 35 आयुवर्ग के 11 उम्मीदार उतारे गए थे, भाजपा ने सात उतारे। भाजपा के चार जीते और कांग्रेस के दो। हिमाचल प्रदेश की कुल 68 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा ने दो दो उम्मीदवार उतारे और माकपा ने तीन। कांग्रेस और भाजपा के एक एक जीते। आंकड़े बताते हैैं कि दोनों चुनावों में सबसे ज्यादा उम्मीदवार 35 से 60 आयुवर्ग के उतारे गए थे। जीत का ज्यादा आंकडा भी इन्हीं के बीच आया था। एक बड़े नेता का मानना है कि यह युवा वर्ग पर विश्वास से ज्यादा राजनीतिक दलों की मजबूरी से जुड़ा है।
दरअसल पुराने नेताओं को अलग थलग करना पार्टी के अंदर लड़ाई को बढ़ावा देता है। खासकर तब जबकि पार्टी सत्ता में हो। ध्यान रहे कि गुजरात में भाजपा अक्सर उम्मीदवारों में 30-40 फीसद बदलाव करती रही है। लेकिन इस बार बहुत कम उम्मीदवार बदले गए। शायद उन्हें बगावत का डर था। लेकिन 22 वर्षों से विपक्ष में रहने के बावजूद गुजरात में कांग्रेस भी युवा उम्मीदवारों को लेकर बहुत जोश नहीं दिखा पाई। खासतौर पर तब जबकि न सिर्फ कांग्रेस का पूरा चुनावी अभियान अप्लेश ठाकुर, जिग्नेश मेवाणी और हार्दिक पटेल जैसे नेताओं के हाथ में था, बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी राजनीति में युवाओं की हिस्सेदारी की पैरवी करते रहे हैैं।