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अब वन नेशन-वन इलेक्शन की तरफ बढ़ा देश, जानें कितना व्यवहारिक है ये सपना

राष्ट्रपति द्वारा एक देश- एक चुनाव के बारे में जिक्र करने के बाद राजनीतिक गलियारों में लोकसभा सभा चुनाव समय से पहले कराए जाने पर चर्चा तेज हो गई है।

By Lalit RaiEdited By: Published: Tue, 30 Jan 2018 04:30 PM (IST)Updated: Tue, 30 Jan 2018 07:01 PM (IST)
अब वन नेशन-वन इलेक्शन की तरफ बढ़ा देश, जानें कितना व्यवहारिक है ये सपना

नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क] । कहा जाता है कि भारत में चुनाव, मेलों की तरह होते हैं। जैसे देश के अलग अलग हिस्सों में हर समय कोई कोई न मेला लगा रहता है, ठीक वैसे ही देश के सभी हिस्सों में किसी न किसी रूप में चुनाव भी संपन्न होते रहते हैं। मतदाताओं द्वारा  का अपने प्रतिनिधियों का चुनाव लोकतंत्र की बड़ी खासियतों में से एक है। लेकिन एक सच ये भी है कि चुनावी प्रक्रिया के लगातार चलते रहने से विकास की रफ्तार पर लगाम भी लगती है। इस बारे में पीएम नरेंद्र मोदी के साथ साथ पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी चिंता जताई थी।

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लोकतंत्र के मंदिर यानि संसद से बाहर एक साथ चुनाव के संबंध में पक्ष और विपक्ष में कई बोल उठते रहे हैं। लेकिन बजट सेशन के दौरान अभिभाषण में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा कि अब समय आ गया है कि जब हमें एक देश और एक चुनाव के बारे में गंभीरता से सोचने और आगे बढ़ने की आवश्यकता है। एक तरह से देखा जाए तो केंद्र सरकार ने औपचारिक तौर पर इस मुद्दे पर पहल कर दी है। जहां एनडीए के ज्यादातर घटक एक साथ चुनाव कराए जाने के पक्ष में हैं, वहीं कांग्रेस ने भी सधी प्रतिक्रिया दी। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि सैद्धांतिक तौर पर उनकी पार्टी इस बारे में सकारात्मक ढंग से सोचती है, वहीं ये मौजूदा सरकार की हड़बड़ी दिखाता है। आइए आप को बताते हैं कि एक साथ चुनाव कराए जाने के क्या फायदे और नुकसान हैं और इसके साथ ही बताएंगे कि इस बहस का आधार क्या है। 

13 राज्यों में 2018 में, 9 राज्यों में 2019 में और 1 राज्य में 2020 में चुनाव होने हैं।

महाराष्ट्र- शिवसेना के साथ लगातार टकराव के बीच राज्य के सीएम देवेन्द्र फडणवीस ने भी संकेत दिया है कि वह साल के अंत में चुनाव कराने को तैयार हैं।

ओडिशा- ओडिशा का टर्म हालांकि 2019 के मई-जून में पूरा होता है लेकिन नवीन पटनायक ने इस मुद्दे पर साफ कर दिया है कि अगर 6 महीने पहले चुनाव कराने को कहा जाता है तो वह इसके लिए तैयार हैं।

आंध्र प्रदेश- बताया जा रहा है कि चंद्रबाबू नायडू ने भी इसके लिए हरी झंडी दी है। टीडीपी-भाजपा गठबंधन का  टर्म भी 2019 के मई में पूरा हो रहा है। 

तेलंगाना- एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने पर सबसे पहले सहमति देने वालों में टीआरएस नेता ही शामिल थे। उनके लिए टर्म से 6 महीने पहले चुनाव करवाना कठिन नहीं होगा।

तमिलनाडु- तमिलनाडु में भी राजनीतिक हालात अस्थिर हैं और तमाम दल वहां जल्द चुनाव की मांग कर रहे हैं। सरकार भी वहां अल्पमत में है। ऐसे में वहां भी लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने का विकल्प खुला हुआ है।

सिक्किम- यहां भी मौजूदा विधानसभा का टर्म 2019 में खत्म हो रहा है। ऐसे में यहां भी साल के अंत में चुनाव कराने में कोई परेशानी नहीं होगी।

कुछ राज्यों में आगे खिसकाए जा सकते हैं चुनाव

साथ ही इस साल अक्टूबर से पहले होने वाले 4 राज्यों कर्नाटक,त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय का चुनाव 2023 में 6 महीने आगे बढ़ाया जा सकता है ताकि इन राज्यों के भी चुनाव साथ हो सकें।

पूरी बहस का क्या है आधार? 

2016 में केंद्र  सरकार ने अपने वेबपोर्टल ‘My Gov’ पर इस मुद्दे पर ओपन डिबेट करने के लिए लोगों को कहा था। इस पर 15 अक्टूबर तक अपने-अपने विचार भेजना था। इसमें लोगों से पांच सवाल थे पूछे गए थे।

- क्या लोक सभा, विधानसभा चुनाव एक साथ करवा सकते हैं? इसके फायदे और नुकसान क्या हैं?

- अगर एक साथ चुनाव होते हैं, तो उन विधानसभाओं का क्या होगा जहां चुनाव होने हैं?

- क्या लोक सभा और विधानसभा चुनावों का कार्यकाल फिक्स होना चाहिए?

- अगर कार्यकाल के बीच में चुनाव करवाना जरूरी हो जाए तो क्या होगा?

- क्या होगा अगर सत्ता पर काबिज पार्टी या गठबंधन कार्यकाल के बीच में बहुमत खो दे?

लॉ कमीशन, चुनाव आयोग और कानून मंत्रालय

लॉ कमीशन ने 1999 में अपनी 107 वीं रिपोर्ट (इलेक्टोरल लॉ,1999) में कहा था कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने का नियम होना चाहिए। लेकिन 17 दिसंबर 2015 को पार्लियामेंट की स्टैंडिंग कमेटी की 79वीं रिपोर्ट में कहा कि अगर ये नियम लागू हुआ तो बहुत से सांगठनिक बदलाव करने होंगे। इसके लिए आर्टिकल 83, 172, 85, 174 में संशोधन करना होगा।

कानून मंत्रालय ने चुनाव आयोग से पार्लियामेंट्री कमेटी की 79वीं रिपोर्ट के बारे में सलाह मांगी थी। जून 2016 में चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय को एक चिट्ठी लिखी। इसमें उसने एक साथ चुनाव करवाने का समर्थन किया था।ऐसा पहली बार हुआ कि चुनाव आयोग ने आधिकारिक रुप से अपनी इच्छा जाहिर की। चुनाव आयोग ने कहा कि

जहां तक आयोग का सवाल है ये कोई बड़ी बात नहीं है। अगर राजनीतिक सहमति बनती है तो ये कहने की कोई जरुरत नहीं कि चुनाव आयोग सहमत है या नहीं है। 

जर्मन सिस्टम पर आधारित भारतीय चुनाव प्रणाली?

भारत की चुनाव प्रणाली जर्मन सिस्टम पर आधारित है। संविधान लागू होने के बाद चार बार 1951,1957, 1962, 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे। लेकिन 1967 में ये सिलसिला टूट गया। कांग्रेस सरकार के खिलाफ समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने नारा दिया। 1967 के बाद हुए चुनावों में आठ राज्यों में कई पार्टियों ने मिलकर गठबंधन से संयुक्त विधायक दल की सरकारें बना ली थीं। ये राज्य थे- बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मद्रास और केरल की  कम्युनिस्ट पार्टियां और जनसंघ भी इसमें शामिल थे। इससे कांग्रेस राज को चुनौती तो मिली लेकिन ये गठबंधन सरकारें ज्यादा दिनों तक नहीं टिकीं। कई सरकारों को संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत बर्खास्त कर दिया गया था। ये बात अलग है कि आपातकाल के बाद मोरार जी देसाई की जनता पार्टी ने भी यही किया था। उसने नौ सरकारों को बर्खास्त किया। इंदिरा गांधी ने भी 1980 में दोबारा सत्ता में आने पर ऐसा ही किया।

चुनावों पर कितना होता है खर्च

-राष्ट्रीय खजाने से साल 2014 के लोकसभा चुनाव में 3426 करोड़ रुपये खर्च किए गए, वहीं राजनीतिक दलों द्वारा 2014 के लोकसभा चुनाव में लगभग 26,000 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे।

- साल 2009 के लोकसभा चुनाव में सरकारी खजाने से 1483 करोड़ रुपये का खर्च हुआ था।

- 1952 के चुनाव में प्रति मतदाता खर्च 60 पैसे था, जो साल 2009 में बढ़कर 12 रुपये पहुंच गया।

- चुनाव आयोग के अनुसार विधानसभाओं के चुनावों में लगभग 4500 करोड़ रुपये का खर्च बैठता है। लेकिन एक साथ चुनाव कराए जाने पर इस खर्च को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

Jagran.Com से खास बातचीत में संविधान के जानकार सुभाष कश्यप ने कहा कि उनका निजी मत और संविधान आयोग उसका भी मत ये था कि एक साथ 'विद ए हैमर' सारे चुनाव करना राजनीतिक दृष्टि से संभव नही होगा...उद्देश्य ये रखा जाए कि चुनाव एक साथ हों लेकिन दो-तीन झटकों या फिर एक प्रक्रिया के तहत हो। कोई संविधानिक कठिनाई नहीं है क्योंकि संविधान में पहले से ही स्पष्ट प्रावधान है जिसके अंतर्गत कभी भी किसी भी विधानसभा का लोकसभा का विघटन किया जा सकता है।

एक साथ चुनाव के फायदे

- इससे चुनाव आयोग का काम कम हो जाएगा। बार बार चुनावों की तैयारी करने से छुटकारा मिलेगा। चुनावी खर्चों में कमी आएगी।

- केंद्र और राज्य सरकारें एक साथ नीति बना सकते हैं। 

- केंद्र और राज्य सरकारें एक साथ जवाबदेह हैं।

- पूरे देश में एक मतदाता सूची होगी। अभी लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों की अलग-अलग मतदाता सूचियां हैं. अक्सर ऐसा होता है कि मतदाता का नाम एक सूची में होता है, लेकिन दूसरी सूची में नहीं होता। जिससे मतदाताओं को मत डालने में दिक्कत होती है। 

- देश को बार-बार लगभग हर साल चुनावों से राहत मिलेगी। सरकारों और जनता को पांच साल तक अपने अपने काम पर ध्यान देने का मौका मिलेगा।

- रोज-रोज के चुनाव से विकास के काम प्रभावित हो जाते हैं। मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट की वजह से नई स्कीम लागू करने में दिक्कत आती है। 

- चुनावी भ्रष्टाचार में लगाम लगाई जा सकती है।

एक साथ चुनाव से नुकसान

- ज्यादातर लोग वोट देते समय एक ही पार्टी को वोट कर सकते हैं। इससे अलग अलग राज्यों के हित प्रभावित हो सकते हैं। देश में एक ही पार्टी का शासन हो सकता है।

- इस समय जो व्यवस्था चल रही है उसकी लोगों को आदत पड़ गई है। भारत में अभी भी बड़ी तादाद ज्यादातर लोग पढ़ी लिखी नहीं है जिसकी वजह से उन लोगों को नई व्यवस्था समझाना कठिन हो सकता है।

- इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच मतभेद बढ़ सकते हैं।

- आर्टिकल 356 का गलत इस्तेमाल हो सकता है।

- इससे राष्ट्रीय दलों को फायदा हो सकता है। छोटी पार्टियां पीछे रह जायेंगी। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी का कहना है कि चाहे इसे कोई माने या न माने, बड़े राजनीतिक नेताओं और पार्टियों से जुड़ी लहर का कारक राज्य चुनावों के परिणाम को प्रभावित करता है और इसलिए एक साथ चुनाव कराए जाने से राष्ट्रीय पार्टियों को फायदा होगा और छोटे क्षेत्रीय दलों के लिए मुश्किल होगी।

Jagran.Com से खास बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार अवधेश कुमार ने कहा था कि एक साथ चुनाव कराए जाने से देश में विकास की रफ्तार पर ब्रेक नहीं लगेगा। ऐसा नहीं है कि ये सब पहली बार करने की कवायद की जा रही है। देश की आजादी के बाद चार चुनाव एक साथ ही कराए गए थे। लेकिन कुछ खास वजहों से ये परंपरा आगे नहीं बढ़ सकी। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि 2010 के बाद अगर आप देखें तो ज्यादातर राज्यों में पूर्ण बहुमत की सरकारें काम कर रही हैं। इसका अर्थ ये है कि भारतीय मतदाता परिपक्व हो चुका है। सच तो ये है कि मौजूदा समय में देश के किसी न किसी हिस्से में चुनाव प्रक्रिया चलती रहती है, जिसका खामियाजा आम लोगों के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को भी भुगतना पड़ रहा है।  


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