...जब मोरारजी देसाई ने कहा था कि इंदिरा गांधी ने कहीं का न छोड़ा
पूर्व पीएम मोरारजी देसाई ने एक साक्षात्कार में कहा था कि इंदिरा गांधी की नीतियों से देश में निराशा का माहौल बन गया था।
नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क] । कहते हैं कि सियासत की भाषा कभी सीधी नहीं होती है। जो आप देखते हैं वो सच से कोसों दूर हो सकता है, या जो कुछ हो रहा होता है उसका असर दूरगामी होता है। 60 के दशक में भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी का उभरना न केवल आम लोगों के लिए कौतुहल भरा था बल्कि कांग्रेस के कद्दावर नेताओं के लिए ये किसी अचंभे से कम नहीं था। दरअसल उसके पीछे ठोस वजह थी, ये बात यच है कि इंदिरा गांधी की परवरिश राजनीतिक परिवार में हुई थी। लेकिन उस वक्त तक जमीनी राजनीति से उनका सीधा वास्ता नहीं था।
लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद ये कयास लगाया जाने लगा कि पीएम की कुर्सी पर मोरारजी देसाई की दावेदारी पुख्ता है। लेकिन हकीकत में वो पीएम बनते बनते रह गए और इंदिरा गांधी देश की पीएम बनीं। मोरारजी देसाई के लिए ये किसी वज्रपात से कम नहीं था। ये बात अलग है कि इंदिरा गांधी की कुछ नीतियों से जनता इस कदर तंग आ चुकी थी कि कांग्रेस से लोगों का मोह भंग होता जा रहा था। विपक्षी दलों ने इंदिरा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला और 1977 के चुनाव में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। इस दफा मोरारजी के सितारे बुलंद थे। 81 साल की उम्र में उन्होंने पीएम पद की गद्दी संभाली। 1977 में जब वो राष्ट्रमंडल देशों के सम्मेलन में लंदन गए तो वहां एक साक्षात्कार में उन हालातों का जिक्र किया जिसकी वजह से कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी थी।
जब मोरारजी पीएम बनने से चूके
बताया जाता है कि कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में से एक रहे मोरारजी देसाई के पीएम बनने के दो मौके आए थे। लेकिन वो कुर्सी तक पहुंचने में सफल नहीं हो सके। 1964 में जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद बाजी लाल बहादुर शास्त्री के हाथ लगी,वहीं 1967 में शास्त्री जी के निधन के बाद इंदिरा गांधी को ये मौका हाथ लगा।
सत्ता की लड़ाई के साथ साथ मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी के बीच अंदरूनी लड़ाई की कहानी बेहद दिलचस्प है। 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी। लेकिन कांग्रेस को उम्मीद के मुताबिक सीटें हासिल नहीं हुई। 1967 के चुनाव में कांग्रेस को 78 सीटें कम मिलीं। लेकिन इंदिरा गांधी के सिर वो ताज सज चुका था। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी को मोरारजी देसाई पीएम पद के उपयुक्त नहीं मानते थे। इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई के बीच तनातनी को समझने के लिए राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण और इंदिरा गांधी की राजनीति
बैंकों के राष्ट्रीयकरण को लेकर इंदिरा गांधी सरकार में पहले से बहस से चल रही थी। इस पर कांग्रेस में दो गुट बने। एक गुट राष्ट्रीयकरण का समर्थक था तो दूसरा गुट इंदिरा गांधी की इस नीति का विरोध कर रहा था। किसी तरह के विवाद से बचने के लिए बीच का रास्ता निकाला गया जिसे सामाजिक नियंत्रण नीति यानी सोशल कंट्रोल पॉलिसी का नाम दिया गया।इसके तहत बैंकों के निदेशक मंडल (बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स) का फिर से गठन होना था और बोर्ड का गठन इस तरीके से होना था कि उनका नियंत्रण उद्योग जगत से बाहर के लोगों के हाथ में हो।इसका मतलब ये था कि आम तौर पर औद्योगिक घरानों के नियंत्रण में रहे बैंकों में सरकार का दखल बढ़ना था। लेकिन फिर इंदिरा गांधी को लगा कि बीच के इस रास्ते में टकराव होता रहेगा इसलिए उन्होंने बैंकों का पूरी तरह राष्ट्रीयकरण करने का फैसला किया।
मोरारजी देसाई थे खिलाफ
लेकिन वित्त मंत्री और उप-प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई इसके खिलाफ थे। 10 जुलाई 1969 को उन्होंने इंदिरा गांधी को एक नोट जारी किया जिसमें लिखा कि हाल के अनुभव से नहीं लगता कि बड़े बैंकों को सरकार के अधिकार में लिए जाने की जरूरत है। सामाजिक नियंत्रण की नीति के तहत बैंकों से देशहित का वह काम नहीं कराया जा सकता जो स्टेट बैंक कर रहा है। ऐसा मानने की कोई वजह नहीं है। मोरारजी देसाई का कहना था कि केवल राष्ट्रीयकरण से बैंकों के लिए ज़्यादा संसाधन उपलब्ध नहीं होंगे।ये बात अलग है कि मोरारजी देसाई की बात को इंदिरा गांधी ने नहीं माना। जानकारों के मुताबिक अपने राजनीतिक हित को साधने के लिए उन्हें बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा करनी ही थी।19 जुलाई 1969 की आधी रात को देश के 14 व्यावसायिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया।
मोरारजी देसाई ने कहा था कि इंदिरा गांधी ने तो एक अद्भुत प्रस्ताव और चतुराई भरे कदम से उन्हें बर्खास्त भी नहीं किया और कैबिनेट छोड़ने पर मजबूर भी कर दिया। दरअसल इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा से पहले ही मोरारजी देसाई से वित्त मंत्रालय ले लिया था। लेकिन उन्होंने मोरारजी को कैबिनेट से नहीं निकाला था। इंदिरा गांधी ने सफाई में कहा था कि वे वित्त मंत्रालय का अनुभव लेना चाहती हैं इसलिए उन्होंने ऐसा किया। इंदिरा गांधी का कहना था मोरारजी उप-प्रधानमंत्री बने रहें और कोई दूसरा मंत्रालय ले लें। लेकिन मोरारजी देसाई ने इससे इनकार कर दिया। उन्होंने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर कहा कि आप वित्त मंत्रालय चाहती थीं तो मुझसे बात कर सकती थीं। आप जानती हैं कि मैंने कभी भी किसी मुद्दे को लेकर आपसे अनुचित तरीक़े से बात नहीं की. लेकिन आपने मेरे साथ जो व्यवहार किया वैसा कोई किसी क्लर्क से भी नहीं करेगा। इसके बाद मोरारजी ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।
बहुत से जानकार मानते हैं कि मोरारजी देसाई इस स्थिति में नहीं थे कि उन्हें अचानक हटाए जाने से कोई बड़ा विवाद खड़ा हो जाता जिसे पैदा होने से पहले ही इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के जरिए रोक दिया। यह फैसला वे पहले ही ले चुकी थीं। इसका उन्हें राजनीतिक फायदा हुआ। इंदिरा गांधी की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई थी। हवा के रुख को भांपते हुए उन्होंने 1972 में होने वाला आम चुनाव 1971 में कराया और पहले से ज्यादा सीटों के साथ सत्ता में लौटीं।