अस्वाभाविक है यह वामपंथ का साथ
वामपंथ एक ऐसी जिंदा लाश है जिसे जिग्नेश मेवाणी अपने कंधे पर लेकर चल रहे हैं। ऐसा मुझे लगता है। लक्ष्य हासिल करने के लिए बेमेल है इन सबका साथ।
नई दिल्ली (जेएनएन)। जिग्नेश मेवाणी का उमर खालिद और कन्हैया कुमार के साथ किसी तरह का गठजोड़ है कि नहीं, यह मुझे नहीं पता लेकिन जिग्नेश की खुद अपनी सोच आउट डेटेड या पुराने जमाने की है। इसकी एक्सपायरी डेट खत्म हो चुकी है। आज की सोच यह है कि इकोनॉमी जितनी अधिक होगी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में जितनी प्रगाढ़ता आएगी, दलित चेतना उतनी ही मजबूत होगी। जिग्नेश मेवाणी का मानना है कि एफडीआइ से देश को नुकसान होगा लेकिन उनकी यह विचारधारा आंबेडकरवादी नहीं है। वह बिहार के 60 के दशक वाले समाजवादी जैसी सोच से प्रभावित लगते हैं। जबकि आंबेडकर अमेरिका से दोस्ती के पक्ष में थे।
जिग्नेश का गुजरात में सरकार द्वारा दलितों को जमीन देने का नारा पुराना समाजवादी नारा है। जबकि आंबेडकर कहते थे कि गांव छोड़ो। वह बंटवारे की मांग नहीं करते। वह शिक्षा और खासकर अंग्रेजी की पढ़ाई पर जोर देते थे। आज यदि आप गांवों को देखें और 70 सालों में विभिन्न जातियों से पूछें तो अलग अलग उत्तर मिलेंगे। उच्च जाति के लोगों से पूछेंगे तो वह कहेंगे कि हमारे यहां के दलित तौर तरीके भूल गए हैं। वह सलाम नहीं करते हैं। उनकी महिलाएं हमारे यहां खेतों में काम नहीं करती हैं। उसी गांव के दलित से मिलिए तो वह कहेंगे अच्छा हुआ हमें उनके यहां से मुक्ति मिली क्योंकि अब मेरा बेटा गांव से बाहर रहता है वह हमें पैसा भेजता है। हम भी शैंपू साबुन से नहाते हैं।
आज जब जाति कमजोर हो रही है लोग यह समझते हैं देश कमजोर हो रहा है। यदि कोई आगे बढ़ रहा है तो उसके कई पैमाने दुनिया में हैं। पहला, देश की औसत उम्र देखी जाती है। आजादी से पहले भारत में औसत उम्र 38 वर्ष थी आज 68 वर्ष है। दूसरा, साक्षरता है, आजादी से पहले साक्षरता 16 फीसद थी आज यह 70 फीसद से अधिक है। तीसरा, प्रतिव्यक्ति आय आजादी से पहले न के बराबर थी आज यह काफी अधिक थी। पहले विदेशी मुद्रा हमारे पास बहुत कम थी लेकिन आज तीन सौ अरब का विदेशी धन संग्रह है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को कर्ज दे रहे हैं।
आज खाना, दूध और अन्य चीजों में हम बहुत आगे हैं। पहले साइकिल आयात होती थी लेकिन आज कई उत्पादन कंपनियां हैं। भारत बर्बाद नहीं हुआ है। भारत में बस जाति व्यवस्था कमजोर हुई है। आज बहुतायत शासक वर्ग गुस्से में है इसकी एक बड़ी वजह यह है कि वह समझता है कि मैं तब सत्ता में आया जब जाति
व्यवस्था कमजोर हो चुकी है और एक दलित का लड़का भी हमारे सामने चश्मा लगाकर खड़ा होकर बात करता है। जहां दलित मूंछ रख रहा है और आगे बढ़ रहा है वहीं जिग्नेश अभी जमीन बांटने की बात कर रहे हैं।
जिग्नेश के लिए युवा नेता होना ही काफी नहीं है युवा उम्र में भी बुजुर्ग ख्याल आ सकते हैं। जिग्नेश का उदय एक क्षणिक उभार है। ऊना की घटना के बाद यह नेतृत्व निकला है। जबकि महाराष्ट्र में दलित पैंथर आंदोलन से संगठन निकला था। कांशीराम का आंदोलन एक सृजित आंदोलन था।
जिग्नेश घटना की उपज हैं आंदोलन की उपज नहीं हैं। इसीलिए बहुत से विचार इनके साफ नहीं हैं। यह भूमंडलीकरण चाहते हैं या नहीं, औद्योगीकरण पर इनका क्या रुख है। अभी यह स्पष्ट नहीं हैं। यह इन विचारों के साथ अपने यहां के मास लीडर हो सकते हैं लेकिन देश में सबको स्वीकार्य नहीं हैं। वामपंथ के सहयोग को मैं उचित नहीं मानता। जहां भी वामपंथ रहा है वहां उद्योग का नाश हुआ है। इसके बाद भी यदि कोई कहता है कि उसके सहयोग से देश का भला होगा मुझे यह बहुत पुरानी सोच लगती है।
वामपंथ एक ऐसी जिंदा लाश है जिसे जिग्नेश मेवाणी अपने कंधे पर लेकर चल रहे हैं। इसलिए यह लंबी दूरी तय नहीं कर पाएंगे। ऐसा मुझे लगता है। लक्ष्य हासिल करने के लिए बेमेल है इन सबका साथ।
चंद्रभान प्रसाद
दलित चिंतक
(अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित)
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