मुश्किल है कि बीएस येद्दयुरप्पा को सीधे पद से हटाने का आदेश दे सुप्रीम कोर्ट
कोर्ट ने ऐसे विवाद में हमेशा फ्लोर टेस्ट (सदन में बहुमत पर मतदान) को ही तरजीह दी है। फिर चाहें वो गोवा का मामला रहा हो या उत्तराखंड अथवा झारखंड का।
नई दिल्ली [माला दीक्षित]। सुप्रीम कोर्ट में शुक्रवार को होने वाली सुनवाई को देखते हुए कांग्रेस नंबर गेम के संकट मे फंसे कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येद्दयुरप्पा को भले ही एक दिन का मुख्यमंत्री बता रही हो लेकिन मौजूदा नजीरों को देखते हुए मुश्किल ही लगता है कि कोर्ट येद्दयुरप्पा को सीधे पद से हटाने का आदेश जारी कर दे। बहुमत के विवाद मे आज तक कभी भी कोर्ट ने प्रधानमंत्री या मुख्य मंत्री को सीधे पद से हटाने का आदेश नहीं दिया है। कोर्ट ने ऐसे विवाद में हमेशा फ्लोर टेस्ट (सदन में बहुमत पर मतदान) को ही तरजीह दी है। फिर चाहें वो गोवा का मामला रहा हो या उत्तराखंड अथवा झारखंड का।
सुप्रीम कोर्ट से शपथग्रहण पर रोक से इनकार के बाद बीएस येद्दयुरप्पा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल ली है, लेकिन उनकी राह आसान नहीं है। आदेश में साफ है कि सबकुछ कोर्ट के अंतिम फैसले पर निर्भर करेगा। कोर्ट ने येद्दयुरप्पा की ओर से राज्यपाल को सरकार बनाने के दावे की दी गई 15 और 16 मई की चिट्ठियां तलब की हैं ताकि पता चल सके कि राज्यपाल ने किस आधार पर उन्हें सरकार बनाने का निमंत्रण दिया है। राज्य में सरकार गठित हो चुकी है। येद्दयुरप्पा मुख्यमंत्री हैं और उन्हें संवैधानिक प्रक्रिया के तहत सदन मे बहुमत साबित करने के लिए राज्यपाल ने 15 दिन का समय दिया है। सवाल उठता है कि ऐसे में क्या सुप्रीम कोर्ट आदेश के जरिये सीधे सरकार बर्खास्त कर सकता है। इस पर विधि विशेषज्ञों के विचार अलग अलग हैं।
वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी कहते हैं कि उन्हें नहीं लगता कि कोर्ट ऐसा आदेश देगा, क्योंकि विधानसभा गठित हो चुकी है और ऐसी स्थिति के लिए संवैधानिक प्रक्रिया तय है। बहुमत सदन में (फ्लोर टेस्ट) तय होता है। कोर्ट ज्यादा से ज्यादा बहुमत साबित करने की तिथि प्री पोन (तय तिथि से पहले) कर सकता है। 15 की जगह 7 दिन कर सकता है और शर्ते तय कर सकता है। जैसे गोवा में हुआ था, उत्तराखंड में हुआ था। वे कहते हैं कि राज्यपाल ने सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का न्योता देकर कुछ भी असंवैधानिक नहीं किया है। सरकार गठन के लिए किसे बुलाया जाए ये राज्यपाल का विवेकाधिकार है। लेकिन संविधान विशेषज्ञ पीडी आचारी इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि राज्यपाल का विवेकाधिकार मनमाना और आधारहीन नहीं हो सकता।
अनुच्छेद 164 के मुताबिक राज्यपाल उसे ही बुलाएगा जिसके पास बहुमत होगा। निमंत्रण देते समय राज्यपाल को बहुमत के प्रति संतुष्ट होना चाहिए। 1999 में जब अटल बिहारी ने केन्द्र में सरकार बनाने का दावा पेश किया था तो तत्तकालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने उनसे समर्थन देने वालों की सूची मांगी थी। पहली सूची में संख्या पूरी नहीं थी उसके बाद जब जयललिता का समर्थन पत्र आया उसके बाद वाजपेई को बुलाया गया था यही सही तरीका है। सुप्रीम कोर्ट ने जो चिट्ठियां मंगाई हैं वो स्पेलिंग और ग्रामर जांचने के लिए नहीं मंगाई हैं यही देखने के लिए मंगाई हैं कि किस आधार पर राज्यपाल ने येद्दयुरप्पा को न्योता दिया था। कांग्रेस की भी यही दलील है कि येद्दयुरप्पा के पास मात्र 104 विधायक हैं जबकि जेडिएस और कांग्रेस को 116 का समर्थन है तो फिर उन्हें बुलाने के बजाए भाजपा को कैसे बुलाया गया।
संविधानविद सुभाष कश्यप कहते हैं कि कोर्ट सिर्फ ये देखेगा कि फैसला लेते समय राज्यपाल के सामने पूरी जानकारी और दस्तावेज रखे गए थे कि नहीं। संविधान के मुताबिक बहुमत सिर्फ सदन में ही साबित किया जाता है। कोर्ट इस पर सवाल नहीं कर सकता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश कहते हैं कि कोर्ट के पास असीमित शक्तियां हैं और वो कोई भी आदेश दे सकता है। यहां येद्दयुरप्पा के बहुमत साबित करने का सवाल नहीं है बल्कि सवाल ये है कि राज्यपाल ने उन्हें किस आधार पर सरकार बनाने का न्योता दिया। राज्यपाल को बहुमत का भरोसा होना चाहिए। अन्यथा 50 सीट पाने वाले को मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा।