कहीं महाराष्ट्र की महाविकास आघाड़ी सरकार से मोहभंग तो नहीं हो रहा शरद पवार का
छह माह पहले अजीत पवार के देवेंद्र फड़नवीस के साथ शपथ लेने से भी यह सिद्ध हो चुका है कि राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता।
ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। पहले प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक और फिर एक प्रेस वार्ता के माध्यम से कांग्रेस नेता राहुल गांधी को आईना दिखाते हुए चीन के मुद्दे पर केंद्र सरकार के साथ खड़े होना राजनीतिक विश्लेषकों को अचरज में डाल रहा है। महाराष्ट्र और महाराष्ट्र के बाहर भी लोग यह सोचने लगे हैं कि कहीं शरद पवार महाविकास आघाड़ी सरकार से मोहभंग तो नहीं हो रहा है।
सरकार में सभी महत्वपूर्ण मंत्रालय पवार की पार्टी के मंत्रियों के पास ही हैं
महाराष्ट्र में कहावत है कि शरद पवार की कही गई बात का सिर्फ उतना अर्थ नहीं होता, जो दिखाई या सुनाई देता है। यही बात हाल में दिए गए उनके बयानों पर भी लागू होती है। महाराष्ट्र में उनकी पार्टी राकांपा, कांग्रेस और शिवसेना के साथ मिलकर सरकार चला रही है। इसमें उनकी पार्टी नंबर दो की स्थिति में है। हालांकि सरकार में सभी महत्वपूर्ण मंत्रालय उनकी पार्टी के मंत्रियों के पास ही हैं। उन्हें महत्व भी पूरा मिल रहा है।
मुख्यमंत्री सरकार चलाने के लिए मार्गदर्शन पवार से लेते हैं
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे सरकार चलाने के लिए मार्गदर्शन उन्हीं से लेते रहते हैं। लेकिन यह भी सही है कि महाराष्ट्र में कोरोना की स्थिति अनियंत्रित हो चुकी है। इसकी जिम्मेदारी भी सरकार की ही होगी। संभव है निकट भविष्य में सरकार में शामिल तीनों दल इस असफलता का ठीकरा एक-दूसरे पर ही फोड़ते नजर आएं। पिछले दिनों इसकी एक छोटी बानगी देखी भी गई, जब कांग्रेस खुद को महत्व न मिलने की शिकायत करती देखी गई और शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में उसे कुरकुर करने वाली पुरानी खटिया बता डाला। उससे पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी कह चुके हैं कि महाराष्ट्र सरकार में उनकी पार्टी निर्णायक भूमिका में है ही नहीं।
भाजपा किसी एक दल को साथ लिए बिना सरकार नहीं बना सकती
भविष्य में तीनों दलों के हितों के टकराव इससे बदतर रूप भी ले सकते हैं। परिपक्व राजनेता शरद पवार संभवत: उन्हीं दिनों को देख पा रहे हैं। महाराष्ट्र का राजनीतिक गणित फिलहाल ऐसा है कि भाजपा किसी एक दल को साथ लिए बिना सरकार नहीं बना सकती। कांग्रेस के साथ वह जा नहीं सकती। शिवसेना के साथ रिश्ते इतने कड़वे हो चुके हैं कि उसके साथ सरकार चलाना नहीं, बल्कि उसे सबक सिखाना ही भाजपा का लक्ष्य रह गया है। बची राकांपा। न उसे किसी के साथ जाने में परहेज है, न उसे किसी को लेने में। 2014 में भी जब-जब अचानक शिवसेना से गठबंधन तोड़कर चुनाव लड़ने के बाद भाजपा पूर्ण बहुमत से पीछे रह गई तो राकांपा ने ही उसका हाथ थामा था। शरद पवार के पास यह तर्क सदैव सुरक्षित है कि अभी राज्य चुनाव झेलने की स्थिति में नहीं है।
राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता
छह माह पहले अजीत पवार के देवेंद्र फड़नवीस के साथ शपथ लेने से भी यह सिद्ध हो चुका है कि राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। दो दिन पहले ही देवेंद्र फड़नवीस एक बयान कह चुके हैं कि भाजपा के साथ आने का प्रस्ताव अकेले अजीत पवार का नहीं, बल्कि राकांपा अध्यक्ष का भी था। राकांपा को जब नंबर दो की स्थिति में ही रहना है, तो शिवसेना के साथ रहे या भाजपा के। फर्क क्या पड़ता है? पवार को आपत्ति हो सकती है, तो सिर्फ देवेंद्र फड़नवीस के नेतृत्व से। वह भी इसलिए, क्योंकि चुनाव के दौरान फड़नवीस मराठा छत्रप के प्रति बहुत सख्त भाषा का इस्तेमाल कर चुके हैं। लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि फड़नवीस मराठा समुदाय से नहीं आते।