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फिर होगा छल, दलित एक सियासी मोहरा

भिन्न-भिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि से आए युवाओं को दलित हितैषी कैसे माना जा सकता है?

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 16 Jan 2018 01:33 PM (IST)Updated: Tue, 16 Jan 2018 01:33 PM (IST)
फिर होगा छल, दलित एक सियासी मोहरा

नई दिल्ली (जेएनएन)। भारतीय समाज में अनेक युवाओं का एक साथ स्थापित राज्यसत्ता के खिलाफ खड़ा होना कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है। इतिहास साक्षी है कि हर कालखंड में ऐसा होता रहा है, पर यह भी सत्य है कि क्रांतिकारी युवाओं को राज्यसत्ता आत्मसात कर व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि के कारण आपस में संघर्ष करने पर मजबूर भी करती है। 1972 में ऐसे ही युवाओं के एक समूह ने दलित पैंथर्स नामक राजनीतिक दल की स्थापना की थी।

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याद रहे आंबेडकरवाद एवं माक्र्सवाद की मिश्रित विचारधारा इस आंदोलन की विशेषता थी। परंतु नेतृत्व की आपसी कलह और विचारधारा के अंतद्र्वंद्व के कारण पूरा आंदोलन कुछ ही समय में खंड-खंड विभाजित हो गया। साथ ही अनगिनत युवाओं की जिंदगी भी बर्बाद हो गयी। इसी कड़ी में दिल्ली में भी कुछ युवा सामाजिक आंदोलन के पर्दे में सत्ता के गलियारों तक पहुंचे पर शीर्ष नेतृत्व ने वर्चस्व की लड़ाई में संस्थापक सदस्यों को ही बाहर का रास्ता दिखा दिया।

लोकपाल कहीं पीछे रह गया और करोड़पतियों को राज्यसभा भेज दिया गया। वही आम आदमी लापता था जिसका विश्वास जीत कर वे सत्ता में आए थे। अत: भिन्न-भिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि से आए इन युवाओं के युग्म को दलित हितैषी कैसे माना जा सकता है? नेतृत्व, संगठन, विचारधारा, कार्यक्रम, कैडर, फंडिंग, नारे किसी भी चीज का पता नही है। इतिहास साक्षी है कि इन्हीं को लेकर नये समूहों में अंतद्र्वंद्व उपजते हैं और उनके बोझ के तले आंदोलन या राजनीतिक दल बनने से पहले ही टूट जाते है।

अगर भविष्य में ये ‘क्रांतिकारी’ युवा सत्ता, संगठन एवं विचारधारा के अंतद्र्वंद्व में फंसकर दिग्भ्रमित हो जाते हैं और दलित समाज एक बार फिर ठगा रह जाता है तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? यहां इस परिप्रेक्ष्य में क्या हम लोग इस अकादमिक कथन ‘अगर हम इतिहास से सीख नहीं लेते तो हम अपनी गलती दोहराने के लिए अभिशप्त हैं’ से कुछ सीख ले सकते हैं।

सभी जानते हैं कि कन्हैया कुमार कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के छात्र संगठन एआइएसएफ के सदस्य हैं और उनकी चाहत यही रहेगी कि दलित उनके राजनीतिक दल से जुड़ें। आंबेडकरवाद पर सवाल खड़े करने वाले जिग्नेश मेवाणी को हाल ही में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सहारे विजय मिली है। अगर कांग्रेस मेवाणी के विपक्ष में अपना उम्मीदवार खड़ा कर देती तो मेवाणी कभी जीत नहीं पाते। इसलिए उनकी चुनावी जीत को बहुत बड़ा करके नहीं आंका जाना चाहिए।

मेवाणी की चुनावी विजय के पीछे कांग्रेस के सहयोग से यह भी प्रमाणित होता है कि कांग्रेस मेवाणी के माध्यम से दलितों को अपनी ओर आकर्षित करना चाहती है। इसी संदर्भ में मुख्यधारा के मीडिया द्वारा अप्रत्याशित कवरेज मेवाणी के आत्मनिर्भर दलित नेता के अस्तित्व पर और भी संदेह पैदा करता है। आज तक किसी दलित नेता के संघर्ष के शुरुआती दौर में भारत के मुख्यधारा के पूंजीवादी मीडिया ने इतना कवरेज नही दिया। आखिर उसने ऐसा कौन सा क्रांतिकारी आंदोलन किया जो हर चैनल वाले उसका वन टू वन इंटरव्यू कर रहे थे।

सभी जानते हैं कि विजुअल मीडिया में वन टू वन इंटरव्यू तभी होता है जब बड़ी-बड़ी राजनीतिक हस्तियां राजनीति में कुछ हासिल कर लेती है। इसलिए यह भी शक होता है कि कहीं कोई स्थापित राजनीतिक दल मुख्यधारा के मीडिया और राजनीतिक संगठनों से मिलकर जिग्नेश को दलित आंदोलन एवं उसके नेतृत्व के
मध्य स्थापित करने का प्रयास तो नहीं कर रहा है? तथ्यों से यह भी साफ दिख रहा है कि स्थापित राजनीतिक दलों को शायद यह भान है कि वो दलितों का विश्वास खो चुके हैं। इसलिए वे इन युवाओं का सहारा ले रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में दलितों का क्या फायदा होगा? आखिर वह कौन से कारण थे कि इन दलों ने दलितों का विश्वास खोया? इसके कई कारण हो सकते हैं।

पहला यह कि इन दलों ने दलितों को माई-बाप संस्कृति के कारण कभी अपने वोट बैंक से ज्यादा नहीं समझा। दूसरा उन्होंने कभी दलितों को सत्ता एवं संगठन में कोई प्रभावी एवम निर्णायक भूमिका नहीं दी। और न ही किसी नेतृत्व को विकसित होने दिया। इन दलों ने संसाधानो में भी कोई हिस्सेदारी नहीं दी। क्या भविष्य की राजनीति में ये युवाओं का युग्म दलितों के लिए यह सब बदल पाएगा? विश्वास तो नहीं होता!

राजनीति वह व्यवस्था होती है जो समाज और देश को न केवल सशक्त करती है, बल्कि उसे सही दिशा में आगे भी बढ़ाती है। युगों-युगों से यही व्यवस्था समाज को सभ्य, समृद्ध और सुसंस्कृत बनाती रही है। आज राजनीति एक हथियार बन चुकी है। सत्ता तक पहुंचने के लिए इसे एक हथकंडे की तरह इस्तेमाल किया जाने
लगा है। राजनीति के इस विकृत रूप का समृद्ध इतिहास है। गुजरात के ऊना और उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के बाद अब इसका रूप महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में दिखा है। इन घटनाओं ने दलितों के तथाकथित नए ‘मसीहाओं’ को खड़ा किया है जो उनका सिर्फ सियासी मोहरे की तरह इस्तेमाल करते दिख रहे हैं।

जनभावनाओं को भड़काकर, जातिगत द्वेष फैलाकर येनकेन-प्रकारेण सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना मकसद दिखता है। कुछ लोगों को लक्ष्यपूर्ति की इतनी जल्दी मची है कि वे समाज को आग में झोंकने से भी हिचकिचा नहीं रहे हैं। तभी दलितों को गैर्र हिंदू बताने का अभियान चल पड़ा है। यह बात और है कि उनकी बातों से देश का मजबूत तानाबाना टस से मस नहीं होने वाला। उनकी ऐसी हरकतों से दलितों का भला हो या न हो लेकिन उनका भला जरूर सुनिश्चित होता दिख रहा है। ऐसे तथाकथित रहनुमाओं के हश्र का इतिहास गवाह रहा है।

कुछ बरस पहले देश में वैकल्पिक राजनीति देने आए एक राजनीतिक दल की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। वंचित, शोषित और दलित समाज को उनका हक मिलना चाहिए, लेकिन यह समाज को बांटने के रास्ते से हासिल होने वाला नहीं। उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, हुनर और रोजगार मुहैया कराने होंगे। जातिवादी राजनीति से नहीं विकासवादी राजनीति से ही देश का भला होगा।  

भिन्न-भिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि से आए युवाओं को दलित हितैषी कैसे माना जा सकता है? नेतृत्व, संगठन, विचारधारा, कार्यक्रम जैसी किसी भी चीज का पता नहीं है। इसी को लेकर नये समूहों में अंतद्र्वंद्व उपजते हैं।

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