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आखिरी मानसून सत्र में सरकार को पास कराने हैं 18 विधेयक, लेकिन ये होगा कैसे?

राजग सरकार राज्यसभा में अभी बहुमत में नहीं है और कांग्रेस के सहयोग व समर्थन के बिना राज्यसभा से कोई भी अहम विधेयक पास हो जाए, ऐसा आज की स्थिति में कतई मुमकिन नहीं है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 16 Jul 2018 11:59 AM (IST)Updated: Mon, 16 Jul 2018 01:57 PM (IST)
आखिरी मानसून सत्र में सरकार को पास कराने हैं 18 विधेयक, लेकिन ये होगा कैसे?
आखिरी मानसून सत्र में सरकार को पास कराने हैं 18 विधेयक, लेकिन ये होगा कैसे?

[प्रमोद भार्गव]। मानसून सत्र को गर्माए रखने के लिए कांग्रेस समेत लगभग समूचे विपक्ष ने अपने-अपने हथियार भांज लिए हैं। यह आशंका कायम है कि विपक्षी दल संसद को ठप रखने में ही अपना समय जाया करेंगे। नतीजतन एक बार फिर बजट सत्र की असफलता की पुनरावृत्ति हो सकती है। इसके दुष्परिणाम यह निकलेंगे कि सत्तारूढ़ राजग बिना बहस के ही लोकसभा से अपनी मनपसंद के विधेयक पारित करा सकता है। बजट सत्र में इसी हंगामे के दौरान वित्त विधेयक बिना किसी विचार-विमार्श के पारित करा लिया गया था। टीडीपी ने संसद को ठप बनाए रहने की पृष्ठभूमि नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के फैसले के साथ ही रच दी है।

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18 विधेयक सूचीबद्ध

सरकार ने इस सत्र में 18 विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित कराने के लिए सूचीबद्ध किए हैं। इनमें से नौ विधेयक लोकसभा से पारित हो चुके हैं। अब इन्हें राज्यसभा में पारित कराना है। इनमें से तीन तलाक बिल पर सबकी नजरें टिकी हैं। कांग्रेस इस पर क्या रुख अपनाती है यह देखने वाली बात होगी। तीन तलाक के मुद्दे पर हाल ही में आजमगढ़-रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को घेरते हुए कहा कि कांग्रेस सिर्फ मुस्लिम पुरुषों की पार्टी रह गई है। इसके अलावा केंद्रीय मंत्रिमंडल ने डीएनए कानून 2015 को भी मंजूरी दी है। इस विधेयक को लेकर व्यक्तिगत गोपनीयता के सवाल भी विपक्ष उठा सकता है। 

हंंगामे के आसार 

मलेकिन विधेयकों पर मुनासिब बहस करने से इतर संसद में उन मुद्दों पर ज्यादा हंगामा होने की आशंका है, जिन पर नीतिगत एक राय बनाना संभव नहीं है। इनके अलावा कश्मीर में हिंसा, पाकिस्तानी सेना के साथ युद्ध जैसे हालात और घाटी में जिदंगी सामान्य कैसे हो, ये मुद्दे छाए रह सकते हैं। यदि संसद में राजनीतिक गतिरोध बना रहता है और संसद अखाड़े में तब्दील होती रही तो उन विधेयकों और अधिनियमों पर बारीकी से बहस संभव नहीं है, जो देश की सवा सौ करोड़ जनता की भलाई व नियमन के लिए कानून बनने जा रहे हैं? सांसद का दायित्व भी यही बनता है कि वह विधेयकों के प्रारूप का गंभीरता से अध्ययन करे, जिससे यह समझा जा सके कि उसमें शामिल प्रस्ताव देश व जनता के हित से जुड़े हैं अथवा नहीं?

क्षेत्रीय राजनीति का दखल  

लेकिन राज्यसभा और लोकसभा का यह दुर्भाग्य है कि ज्यादातर सांसद अधिनियम के प्रारूप पर चर्चा करने के बजाय ऐसे मुद्दों को बेवजह बीच में घसीट लाते हैं जिनसे उनकी क्षेत्रीय राजनीति चमके। ऐसी स्थिति सत्तारूढ़ सरकार के लिए लाभदायी होती है, क्योंकि वह बिना किसी चर्चा के ही ज्यादातर विधेयक पारित करा लेती है, जबकि विपक्ष सार्थक बहस करने के बजाय गाहे-बगाहे सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश में लगा रहकर संसद का समय जाया कर देता है। प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा की दृष्टि से यह स्थिति देशहित में नहीं है। इस लिहाज से सत्तारूढ़ सरकार और दल का कर्तव्य बनता है कि वह राजनीतिक गतिरोध का समाधान राजनीतिक तौर-तरीकों से ही निकाले।

राज्‍यसभा में बहुमत में नहीं सरकार

यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि राजग सरकार राज्यसभा में अभी बहुमत में नहीं है और कांग्रेस के सहयोग व समर्थन के बिना राज्यसभा से कोई भी अहम विधेयक पास हो जाए, ऐसा आज की स्थिति में कतई मुमकिन नहीं है? चूंकि इसी साल के अंत में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और इसके चार माह बाद लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी, इसलिए देश की राजनीति चुनावी माहौल में प्रवेश कर चुकी है। बावजूद इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि संसद अखाड़ा बनी रहे। गोया सत्ता पक्ष को संसद में गतिशीलता बनाए रखने की दृष्टि से व्यावहारिक और वास्तविक नजरिया अपनाना होगा। दरअसल सत्ता पक्ष की विपक्ष के साथ एक अदृश्य सहमति राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों पर होती है। यह अलिखित परंपरा है। साथ ही संबंधों में मधुरता बनी रहे, इस नाते संवाद संप्रेषण निरंतर बना रहना चाहिए। लिहाजा सत्तापक्ष को ऐसी रणनीति अमल में लानी होगी, जिससे विधायी कार्य जहां तहां ठहरे न रह जाएं।


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