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EXCLUSIVE INTERVIEW : आम जनता भुगतेगी आंकड़ों के छलावे की असली मार: पी चिदंबरम

पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम का मानना है कि देश की जनता के साथ आंकड़ों का छलावा हुआ है और मध्यमवर्ग इसका खामियाजा भुगतेगा।

By Shashank PandeyEdited By: Published: Fri, 12 Jul 2019 09:30 AM (IST)Updated: Fri, 12 Jul 2019 10:29 AM (IST)
EXCLUSIVE INTERVIEW : आम जनता भुगतेगी आंकड़ों के छलावे की असली मार: पी चिदंबरम
EXCLUSIVE INTERVIEW : आम जनता भुगतेगी आंकड़ों के छलावे की असली मार: पी चिदंबरम

संजय मिश्र । देश के चुनिंदा शीर्ष आर्थिक रणनीतिकारों में गिने जाने वाले पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम का मानना है कि अनुकूल राजनीतिक माहौल में बड़े जनादेश से दोबारा सत्ता में आई मोदी सरकार के पास आर्थिक सुधारों को छलांग देने का बड़ा मौका था। मगर उसने गेंद रोक कर विकेट बचाने की नीति अपनाते हुए सुधारों का जोखिम नहीं लिया है। आंकड़ों का छलावा हुआ है और मध्यमवर्ग इसका खामियाजा भुगतेगा।

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सवाल: मोदी सरकार दूसरी पारी के अपने पहले आम बजट को राजकोषीय संतुलन के साथ विकास का बजट बता रही है, यह दावा कितना सही है?
जवाब: मुझे साफ नजर आ रहा है कि आर्थिक विकास को अगले पायदान पर ले जाने के लिए सरकार गियर नहीं बदल रही है। वह अर्थव्यवस्था को उसी गति और तरीके से बढ़ाना चाहती है जैसा पिछले पांच साल में किया। इसीलिए बजट में कोई संरचनात्मक आर्थिक सुधार हम नहीं पाते।

सवाल: बजट के कुछ आंकड़ों पर आपने संदेह जताया है, आखिर सरकारी आंकडों पर यह संशय क्यों?जवाब: आंकड़ों-तथ्यों के साथ छल करना इस सरकार का चरित्र रहा है। सरकार कोई भी आंकड़ा लेकर आती है, वह संदेह से परे नहीं होता। 2018-19 के वित्त वर्ष का ही उदाहरण देख लीजिए, इसमें जीडीपी के दो आंकड़े हैं। इस वर्ष के राजकोषीय घाटे का जो आंकड़ा दिया गया है वह पूरी तरह संदेहास्पद है। इसी तरह विकास दर के भी दो आंकड़े हैं। एक तरफ आर्थिक सर्वेक्षण में सात फीसद जीडीपी का आंकलन है तो 'बजट एट ए ग्लांस' में जीडीपी का आंकड़ा आठ फीसद दिया गया है। वास्तव में सरकार ने मौजूदा आर्थिक चुनौतियों की सही-सटीक तस्वीर सामने न लाकर असमंजस को और बढ़ाया ही है। आंकड़ों के इस छलावे की वजह से असली मार तो जनता पर ही पड़ रही है।

सवाल: मगर विकास की मौजूदा गति के आधार पर सरकार 2024 तक अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने की बात कह  रही है। क्या यह लक्ष्य वास्तविक है ?
जवाब: पांच ट्रिलियन कोई मैजिक नंबर नहीं है।अगर विकास दर आमतौर पर 12 फीसद रही तो जीडीपी हर छह साल में दोगुना हो जाएगी।यह भी तथ्य है कि उदारीकरण के बाद से अब तक जीडीपी चार बार दोगुनी हुई है।अगर विकास दर 11 फीसद होगी तो जीडीपी दोगुनी होने में सात साल लगेंगे। मगर सरकार इसे ऐसा पेश करने का प्रयास कर रही है जैसे कि हम कोई असंभव लक्ष्य हासिल करने जा रहे हैं।

सवाल: बजटीय आवंटन से लेकर राजस्व के आंकड़े नहीं दिए जाने पर आपके एतराज की वजह क्या है?
जवाब: यह विचित्र बात है कि बजट भाषण में कुल राजस्व और कुल खर्च का जिक्र नहीं। वित्तीय घाटे, राजस्व घाटे, अहम मंत्रालयों के आवंटन और बड़ी योजनाओं का आवंटन इनमें से किसी का उल्लेख नहीं। यह गलत है और ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। रक्षा क्षेत्र का उदाहरण लीजिए, सरकार ताल ठोंकती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वश्रेष्ठ गारंटी वे ही दे सकते हैं। मगर बजट में रक्षा आवंटन का कहीं जिक्र ही नहीं। यह आश्चर्य की बात है, क्योंकि रक्षा बजट पर पूरे देश की निगाहें रहती हैं। रक्षा आवंटन 2,85,423 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 3,05,296 करोड़ रुपये किया गया है और इजाफा करीब 20 हजार करोड़ का है। मगर सेना, नौसेना और वायुसेना ने जो अपनी जरूरतें बताई हैं उसके हिसाब से यह आवंटन कहीं आस-पास भी नहीं है। महंगाई दर जब चार फीसद हो तब रक्षा बजट में सात फीसद की बढ़ोतरी कुछ भी नहीं है। 

सवाल: बजट का सबसे बड़ा मिसिंग फैक्टर आप क्या मानते हैं?
जवाब: भारत के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था की चुनौतियों को देखते हुए इसका निदान निकालने की राह नहीं दिखाना तथा साहसी आर्थिक सुधार से जुड़ा एक भी कदम नहीं उठाना बजट का सबसे बड़ा मिसिंग फैक्टर है। सरकार आराम से हर गेंद को रोकने और कोई रन नहीं बनाने के इरादे से खेल रही है।

सवाल: अगली जनरेशन के आर्थिक सुधारों को अनुकूल राजनीतिक माहौल के बाद भी आगे बढ़ाने से सरकार क्यों हिचक गई है?
जवाब: ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पीएम नरेंद्र मोदी साहसी सुधारवादी नहीं, बल्कि सुधार धीरे- धीरे जारी रखने के पक्षधर हैं। वे बुनियादी आर्थिक परिस्थितियों का आकलन कर साहसी फैसला लेना नहीं चाहते। छोटे-मोटे इधर-उधर के बदलाव कर चीजों को आगे बढ़ाना चाहते  हैं। बेशक जनादेश छोटे-मोटे नहीं, बल्कि क्रांतिकारी आर्थिक सुधारों के लिए है।

सवाल: रोजगार के मोर्चे की चुनौती को देखते हुए सरकार ने इसे 'रोजगार सृजन वाला बजट' बताया है, क्या यह आकलन रोजगार की उम्मीदें बढ़ाता है?
जवाब: बजट को रोजगार परक बताने के वित्तमंत्री के आकलन का कोई आधार ही नहीं है। आर्थिक सर्वेक्षण ने रोजगार सृजन की दिशा में आगे बढ़ाने के रास्ते सुझाए थे। जैसे बड़ी कंपनियों की जगह एमएसएमई क्षेत्र की नई कंपनियों पर फोकस किया जाए। वित्तमंत्री को इस महत्वपूर्ण अध्ययन पर गौर कर एमएसएमई को अगले गियर में ले जाने का कदम उठाना चाहिए था। लेकिन वित्तमंत्री अब भी पुरानी नीति ही आगे बढ़ा रही हैं।

सवाल: बजट का फोकस लोक कल्याण पर है मगर विकास दर की गति बड़ी चुनौती है, ऐसे में जीडीपी की मौजूदा दर में जनकल्याणकारी शासन का लक्ष्य कितना वास्तविक है?
जवाब: गरीब और विकासशील देश में कुछ रकम जनकल्याण पर खर्च करना ही होगा। मैं इसके खिलाफ नहीं। मगर जनकल्याण का लक्ष्य वे 20 फीसद सबसे गरीब लोग होंने चाहिए जो विकास की दौड़ में नीचे हैं। मगर इस बजट में इनके लिए कुछ भी नहीं है और वे पहले की तरह गरीब ही रहेंगे। 

सवाल: महंगाई को काबू में रखने को सरकार उपलब्धि मानती है, ऐसे में विकास दर की कीमत पर महंगाई को नियंत्रित रखना क्या सही आर्थिक संतुलन नहीं?
जवाब: महंगाई को नियंत्रण में रखना अच्छी बात है और पहली मोदी सरकार में कीमतें इसीलिए काबू में रहीं कि क्रूड ऑयल और वस्तुओं के दाम कम रहे। अगर इस सरकार ने तेल की कीमतें 147 डालर प्रति बैरल की स्थिति का सामना किया होता जैसा हमें 2005 से 2007 तक करना पड़ा था तो महंगाई इनसे नियंत्रित नहीं होती। इस मामले में ये भाग्शाली हैं और इनके भाग्य से मुझे कोई शिकायत नहीं। मगर मुद्रास्फीति कम होने की कुछ चुनौतियां भी हैं, क्योंकि खाद्य वस्तुओं की कीमतें कम रहेंगी। खेतिहर मजदूरी की दर कम रहेगी। इन दोनों के कम होने का सबसे ज्यादा नुकसान किसानों को हो रहा है और इसीलिए कृषि विकास दर 2018-19 में 2.9 फीसद रही।

सवाल: बजट से कृषि क्षेत्र के धीमे विकास को गति देने की राह क्या खुलेगी, खासकर 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के पीएम के लक्ष्य को देखते हुए?
जवाब: प्रधानमंत्री ने कभी यह बात साफ नहीं की है कि किसानों की दोगुनी आय से उनका आशय वास्तविक आय है या सांकेतिक। कृषि की मौजूदा विकास दर के हिसाब से वास्तविक तो दूर सांकेतिक आय भी दोगुनी नहीं होगी। सरकार ने कृषि क्षेत्र के विकास और बदलाव के लिए एक भीकदम नहीं उठाया है। ऐसा लग रहा कि सरकार मान रही है कि किसानों को एक साल में 6000 रुपये दे देना ही पर्याप्त है।

सवाल: शिक्षा और स्वास्थ्य, इन दो बुनियादी क्षेत्रों की दशा बदलने की बातें सालों से हो रही है मगर बजट में यह सिरे क्यों नहीं चढ़ पातीं ?
जवाब: स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर यूपीए सरकार का नजरिया साफ था कि हमें सरकारी क्षेत्र के अस्पतालों का अधिक से अधिक संख्या में ब्लॉक से लेकर राज्य स्तर तक निर्माण करना है। जबकि मोदी सरकार स्वास्थ्य सेवा का विस्तार इंश्योरेंस के जरिए करना चाहती है जो अमेरिकी मॉडल है। यह बिल्कुल गलत है। सरकार के मुताबिक आयुष्मान योजना में 10 करोड़ परिवार यानी 50 करोड़ लोग शामिल हैं। मगर इसके लाभार्थियों का वास्तविक आंकड़ा चेक कर लीजिए तो पता चलेगा कि केवल 30 लाख लोग ही इसका लाभ ले पाए हैं। सवा अरब के देश में यह संख्या कुछ भी नहीं। आयुष्मान में प्राइमरी और सेकेंडरी स्वास्थ्य सेवाएं शामिल नहीं हैं और केवल सरकारी अस्पतालों के जरिए ही जनता को ये मुहैया कराई जा सकती हैं। शिक्षा में भी सरकार का लक्ष्य शिक्षा ढांचा को केंद्रीकृत करने पर है। यह सहकारी संघवाद की भावना के बिल्कुल उलट है। मुझे लगता है कि स्कूली शिक्षा को एक बार फिर संविधान की समवर्ती सूची से निकाल कर राज्य सूची में डाल दिया जाना चाहिए। राज्यों को स्कूली शिक्षा की प्लानिंग और कार्यान्वयन का जिम्मा सौंपा जाए मगर बजट में ऐसा कोई संकेत नहीं दिखता।

सवाल: करदाता मध्यम वर्ग की अपेक्षाओं पर बजट ज्यादा खरा नहीं उतरा है, क्या सरकार के पास वास्तव में इनके लिए गुंजाइश नहीं थी ?
जवाब: मुझे नहीं लगता कि इस सरकार को मध्यम वर्ग की कोई परवाह है। अगर ऐसा होता तो पेट्रोल-डीजल पर टैक्स नहीं बढ़ाया जाता, जबकि आर्थिक सर्वेक्षण में तेल की अंतराष्ट्रीय बाजार में कम होने की बात साफ कही गई है। लांग टर्म कैपिटल गेन टैक्स में इजाफा और शेयरों की पुनर्खरीद पर लेवी टैक्स का बोझ भी मिडिल क्लास पर है। सरकार को लगता है कि मध्यम वर्ग का वोट हासिल करने के लिए ताकतवर राष्ट्रवाद का फार्मूला ही काफी है। ताकतवर राष्ट्रवाद की भाव-भंगिमा ही मध्यम वर्ग का समर्थन बरकरार रखने के लिए काफी है। सच्चाई यह है कि मध्यम वर्ग सरकार से अपना हक नहीं मांगने की कीमत चुका रहा है। 

सवाल: अमीर वर्ग पर टैक्स का बोझ फिर बढ़ाया गया है। आप इसे कैसे देखते हैं?
जवाब: ऊंची आमदनी वाले काफी लोगों ने पिछले कुछ समय में भारत छोड़ दिया है। हर अमीर कारोबारी या उसके परिवार का एक सदस्य सिंगापुर या दुबई में जाकर अपना बिजनेस कार्यालय बना काम कर रहा है। अमीरों पर टैक्स बढ़ाने का कदम सरकार ने अपनी लोक हितैषी छवि का ढिंढोरा पीटने के लिए किया है। तथ्य यह है कि ऐसे अमीर लोगों की संख्या महज 6,350 के करीब है। इनसे सरकार अधिकतम 3000 करोड़ रुपये बतौर टैक्स हासिल कर सकती है। इसके विपरीत पांच साल में मोदी सरकार ने कारपोरेट जगत को चार लाख रुपये से ज्यादा की टैक्स छूट दे दी है। असल सच्चाई यह है कि अमीरों पर टैक्स बढ़ाने का दिखावा कर सरकार उद्योगपतियों को टैक्स छूट देकर उनकी मदद कर रही है।

(साक्षात्कारकर्ता दैनिक जागरण के सहायक संपादक हैं)


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