स्कूली दिनों में इंदिरा गांधी पर फेंका था काला झंडा, तब के बागी; अब शांत और मिलनसार
बचपन से ही मुख्तार अब्बास नकवी के तेवर ऐसे थे कि उनके परिवार वाले भी परेशान थे। पुलिस की रोज-रोज की पूछताछ से परेशान घरवालों ने बचपन में ही उन्हें घर से बाहर रहने की सलाह दे दी थी।
नई दिल्ली [शिवांग माथुर]। वर्तमान राजनीति में ऐसे नेताओं की बड़ी संख्या है जो आपातकाल की उपज माने जाते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल से लेकर नरेंद्र मोदी की दोनों सरकारों में मंत्री बने मुख्तार अब्बास नकवी भी ऐसी ही शख्सियत हैं। आपातकाल के दौरान विरोधी दलों के लगभग सभी बड़े नेता जेल में बंद थे। तब स्कूल में पढ़ रहे मुख्तार ने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर योजना बनाई कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को काला झंडा दिखाया जाए। पैसे नहीं थे सो इलाहाबाद के बड़े नेता रेवती रमण सिंह के पास पहुंचे। बच्चों का जोश देखकर उन्होंने चुपके से पांच रुपये दिए। मुख्तार ने काला कपड़ा खरीदा और एक दिन खुली कार में जा रहीं इंदिरा गांधी के ऊपर फेंक दिया। वह तत्काल पकड़ लिए गए और उन्हें जेल भेज दिया गया।
पढ़ने-लिखने में सामान्य मुख्तार के ये तेवर शुरुआत से ही थे और इसी कारण घरवाले परेशान भी थे। उन्होंने यह मान लिया था कि मुख्तार उनके परिवार की मर्यादा को सुरक्षित नहीं रख पाएगा। लिहाजा दूरी बनानी ज्यादा अच्छी लगी। पुलिस की रोज-रोज की पूछताछ से परेशान घरवालों ने उन्हें घर से बाहर रहने की ही सलाह दी। तब छोटी उम्र के मुख्तार के लिए यह आसान नहीं था। लेकिन इस बागी तेवर के बावजूद एक गुण कूट-कूट कर भरा था- हर किसी से मिलना-जुलना और बात-व्यवहार में भद्रता।
गांव की एक स्वयंसेवी संस्था वजीफा ए सादात से 10 रुपया महीना वजीफा लेकर प्राथमिक पढ़ाई की। फिर जूनियर हाई स्कूल में इलाहाबाद के अपने गांव भदारी से चार किमी पैदल चल कर वो मुहीद्द्नपुर पढ़ाई करने जाते। मन आंदोलन की ओर रहता था यही कारण था कि जूनियर हाई स्कूल का रिजल्ट आया तो मुख्तार को छोड़कर बाकी सभी सात बच्चे प्रथम श्रेणी में पास हुए थे। मुख्तार सेकंड आए। बरेली से लेकर इलाहाबाद की शिक्षा के दौरान छात्र आंदोलन में भागीदारी देना शुरू किया।
1981 में इलाहाबाद में हुए सांप्रदायिक दंगे की एक घटना ने नकवी के जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उन दिनों दंगे होना, महीनों कर्फ्यू लगना सामान्य सी बात थी। इलाहाबाद में एक नौजवान कर्फ्यू छूटने पर अपने घर का राशन लेने जा रहा था तभी पुलिस ने उसे गोली मार दी। यह सब नकवी की आंखों के सामने हुआ। नकवी उसे अपने कंधे पर उठा कर डॉक्टर के पास ले जा रहे थे, पर उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। नकवी के दिमाग में यह घटना घर कर गई और उनके दिल में सांप्रदायिकता, छद्म धर्मनिरपेक्षता और कट्टरपंथ के प्रति नफरत पैदा हो गई।
बस वो एक पल था जब नकवी ने राष्ट्रवाद एवं सांप्रदायिक सद्भाव के लिए काम करना शुरू किया। उस काम में उस समय उनके साथी एबीवीपी के नेता शिवेन्द्र तिवारी एवं समाजवादी युवजन सभा के नेता रामजी केसरवानी ने मिलकर काम किया। आरएसएस की शाखा में बालासाहब देवरस के भाषण सुनकर भाजपा और संघ के प्रति मन में रही तमाम गलत बातें साफ हो गईं। 1984 में सिख नरसंहार में नकवी और उनके साथियों ने कई दुकानों और सिख परिवारों को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सक्रिय राजनीति में नकवी का सफर 1991 में शुरू हुआ जब सबसे पहले कल्याण सिंह ने नकवी को फोन कर कहा कि उन्हें मऊ विधानसभा से भाजपा का उम्मीदवार बनाया गया है। यह फोन उन्हें नामांकन की अंतिम तारीख के एक दिन पहले रात में आया। नकवी का मऊ से कोई परिचय नही था, वह तब बांदा को मऊ समझे और सुबह वहां के लिए निकल लिए, रास्ते में पता चला कि वह सीट तो सुरक्षित है, तब तक सुबह के आठ बज चुके थे, नकवी ने कल्याण सिंह को फोन किया तो उन्होंने बताया यह मऊ आजमगढ़ वाला है आप जल्दी पहुंचें क्योंकि नामांकन 3 बजे तक होगा।
नकवी फौरन वहां से मऊ के लिए रवाना हुए, वहां से मऊ का रास्ता छह घंटे का था, नकवी 2:30 बजे तक मऊ पहुंचे, कचहरी के एक बगिया में बिस्तर पर बैठकर नामांकन फार्म भरा। वकील को फॉर्म भरने की फीस दी और फॉर्म तीन बजने से पांच मिनट पहले जमा कर दिया। तब नामांकन फार्म एक पेज का हुआ करता था। मेहनत से चुनाव लड़ा, लेकिन मात्र 133 वोटों से हार गये। अब तक उनके घर परिवार और दोस्तों का नजरिया बदलने लगा था। जिसे कभी नाकारा समझकर घर वालों ने दूर किया था, उसने अपनी राह को सही साबित कर दिखाया था। तब के बागी मुख्तार अब तक बहुत शांत, मिलनसार और सामंजस्य में भरोसा रखने वाले मुख्तार में बदलने लगे थे।
भारतीय जनता पार्टी के अल्पसंख्यक चेहरा माने जाने वाले मुख्तार अब्बास नकवी ने अपनी मेहनत, लगन और निष्ठा से पार्टी का दिल जीता है और यही कारण है कि अपने लंबे राजनीतिक जीवन में उन्होंने संगठन और सरकार में बहुत कुछ हासिल किया।
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