राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफे पर 'अनिर्णय' में छिपा कांग्रेस का 'निर्णय'
पार्टी में नेतृत्व को लेकर धीमे-धीमे शुरू हुई सुगबुगाहट के बीच राहुल गांधी ने यह तस्वीर जरूर साफ कर दी है कि उनकी जगह कांग्रेस का नया अध्यक्ष आना लगभग तय है।
संजय मिश्र, नई दिल्ली। 'निर्णय नहीं लेना भी एक निर्णय होता है' कांग्रेस के दिग्गज दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव का यह चर्चित सूत्र वाक्य कांग्रेस के मौजूदा हालात को बिल्कुल सटीक बयान कर रहा है। राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश के महीने भर बाद भी दोराहे पर खड़ी कांग्रेस की हालत को लेकर पार्टी कैडर की दुविधा और बेचैनी भले बढ़ रही हो, मगर अनिर्णय की यह स्थिति वास्तव में कांग्रेस की पुरानी सियासी शैली का हिस्सा रही है। पार्टी नेतृत्व जब कभी भी दुविधा में रहा है तब अनिर्णय की स्थिति को उसने अपना रक्षा कवच बनाया है।
ऐसे में कनिष्ठों के इस्तीफे का दांव चलकर वरिष्ठ नेताओं को अनिर्णय के लिए जिम्मेदार ठहराने का संदेश भले दिया जाए पर हकीकत यही है कि पार्टी का शिखर नेतृत्व राहुल गांधी के अडिग रुख के बावजूद उनके विकल्प पर गौर करने से अब तक हिचक रहा है। ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस नेतृत्व के एक इशारे पर नेताओं के इस्तीफे की झड़ी लग गई होती।
इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक के दौर में माखनलाल फोतेदार हों आरके धवन या अहमद पटेल हाईकमान की ओर से इन सिपहसालारों का नेताओं को किया गया इशारा ही काफी होता था। कांग्रेस की इस कार्य संस्कृति के उदाहरणों के बावजूद राहुल के इस्तीफे के महीने भर बाद भी एके एंटनी, केसी वेणुगोपाल और गुलाम नबी आजाद जैसे मौजूदा निकट सलाहकारों ने वरिष्ठ नेताओं को ऐसा कोई संदेश नहीं दिया।
इसलिए यह सवाल तो उठता ही है कि वरिष्ठों का इस्तीफा ही पार्टी के नये सिरे से पुनर्गठन में रोड़ा है तो फिर अभी तक चुप्पी क्यों बरती गई? खासकर तब जब कांग्रेस कार्यसमिति ने तो इस्तीफे की पेशकश ठुकराते हुए राहुल को आमूल-चूल बदलाव का ब्लैंक चेक दे दिया था।
कांग्रेस के सियासी भविष्य की वाजिब चिंता कर रहे कार्यकर्ताओं के लिए यह बात भी कम परेशान करने वाली नहीं है कि कभी हाईकमान के इशारे पर इस्तीफे सहित किसी भी कदम के लिए बिछ जाने को पार्टी नेता हर पल तैयार थे। मगर आज राहुल गांधी के खुले इशारे के बाद भी नेता इस्तीफा देने से परहेज कर रहे हैं। इसका निहितार्थ तो यही निकलेगा कि इस्तीफे की पेशकश कर राहुल ने पार्टी में अपनी अथॉरिटी को खुद ही कमजोर किया है।
चुनावी हार के शुरूआती पोस्टर्माटम में राहुल ने वरिष्ठ नेताओं की भूमिका पर भी खूब उंगली उठाई और पार्टी में बदलावों के लिए उनके अवरोधों की ओर इशारा किया। बेशक पार्टी की सियासी दुर्गति के लिए नेताओं की जिम्मेदारी को नकारा नहीं जा सकता। मगर सच्चाई यह भी है कि शीर्ष नीति नियामक इकाई कांग्रेस कार्यसमिति से लेकर संगठन के पदों पर बैठे नेताओं का चयन तो खुद राहुल ने किया था।
बतौर अध्यक्ष जब कमान संभाली तो पार्टी में दूर दूर तक उनके लिए कोई चुनौती नहीं थी। अगर आज वे इस्तीफे का फैसला वापस ले लें तो भी पार्टी खुश ही होगी। इसलिए यह सवाल लाजिमी है कि अड़चन वाले नेताओं से तब किनारा क्यों नहीं किया गया।
दिग्विजय सिंह और जर्नादन द्विवेदी जैसे वरिष्ठ नेताओं को राहुल ने अपनी टीम से बाहर किया तब सवाल नहीं उठा। जो यह साबित करता है कि निर्णायक फैसले लेने के लिए नेतृत्व के समक्ष चुनौती जैसी कोई स्थिति नहीं थी।
चुनाव में हार के लिए कांग्रेस घोषणा-पत्र में जम्मू-कश्मीर से एएफएसपीए हटाने जैसे विवादित मुद्दों को शामिल करने की बात आनंद शर्मा जैसे नेता अब कबूल कर रहे हैं। दिलचस्प बात है कि शर्मा सरीखे नेता घोषणापत्र से लेकर पार्टी की अहम चुनावी रणनीति के प्रमुख रणनीतिकारों में शामिल थे।
पार्टी के जमीनी नेता और कार्यकर्ता ऐसे विवादित मुद्दे हों या फिर राफेल के कथित भ्रष्टाचार का दांव इनका चुनाव अभियान में उलटा पड़ने का संदेश भेज रहे थे। मगर तब यही रणनीतिकार इस हकीकत को खारिज कर रहे थे लेकिन इनकी जवाबदेही का सवाल तो अब भी कहीं चर्चा में भी नहीं है।
कांग्रेस की बड़ी हार और कमजोर हुई सियासी जमीन का संकट राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद जिस तरह पार्टी के नेतृत्व के संकट में तब्दील हो चुका है उसमें असल एजेंडा पीछे छूटता दिख रहा है। पार्टी क्यों हारी और कहां-कहां चूक हुई इस पर सभी उम्मीदवारों से सीधा संवाद कर जमीनी सच्चाई जानने जैसी कोई पहल नहीं होना यह दर्शाता है।
राहुल खुद इस्तीफे पर अडिग हैं तो फिर उनके उत्तराधिकारी के चयन में अनिर्णय की लंबी स्थिति पार्टी का भला तो नहीं ही करेगी। कार्यकर्ताओं के लिए यह चिंता की बात तो है कि नीचे पार्टी की जमीन सिमट रही है और उधर निर्णय नहीं लिया जा रहा है।
अनिर्णय की यह स्थिति पार्टी पर पकड़ को लेकर नेतृत्व के द्वंद्व को भी दर्शाता है। लोकसभा में जब पार्टी को आज जब मुखर वाक्पटु चेहरे की जरूरत है तब शशि थरूर या मनीष तिवारी की जगह अधीर रंजन चौधरी का नेता के रुप में चयन भी कुछ इसी ओर इशारा करता है।
नये कांग्रेस अध्यक्ष के लिए एके एंटनी हों या कई बार से अपनी लोकसभा सीट तक नहीं जीत पाने वाले मुकुल वासनिक जैसे नेता का नाम उछालने का प्रयास भी कुछ ऐसा ही है। जमीनी सियासत में अप्रासंगिक हो चुके इन नेताओं की दस जनपथ से निकटता किसी से छुपी नहीं है।
पार्टी में नेतृत्व को लेकर धीमे-धीमे शुरू हुई सुगबुगाहट के बीच राहुल गांधी ने यह तस्वीर जरूर साफ कर दी है कि उनकी जगह कांग्रेस का नया अध्यक्ष आना लगभग तय है। शायद यह पहली बार होगा जब नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य अध्यक्ष पद से इस्तीफा देगा और पार्टी उसे मान लेगी। मगर कांग्रेस के एक सूत्र में बंधे होने का चुंबक रहे गांधी परिवार का नेतृत्व न होते हुए भी पार्टी उनके प्रभाव से दूर रहेगी इसकी कोई गुंजाइश नहीं है।
अशोक गहलोत हों या मल्लिकार्जुन खड़गे जो भी पार्टी का नया अध्यक्ष बनेगा उसके नाम पर अंतिम मुहर तो गांधी परिवार ही लगाएगा। ऐसे में चाहे सीधे तौर पर पार्टी की बागडोर हाथों में न हो राहुल गांधी की कांग्रेस में प्रभावी और महत्वपूर्ण भूमिका बनी रहेगी इसमें भी शक नहीं है। इस राजनीतिक हकीकत को जानते हुए भी पार्टी संकट के दौर को लंबा खींचने का औचित्य पर गंभीर सवाल तो उठाती ही है।