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फांसी के कानून से नहीं तय समय मे सजा से रुकेंगे महिलाओं के प्रति अपराध

दुष्कर्म के मामलों की सुनवाई विशेष अदालतों में हो और तय समय में ट्रायल निपटे।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Thu, 13 Sep 2018 09:29 PM (IST)Updated: Thu, 13 Sep 2018 09:29 PM (IST)
फांसी के कानून से नहीं तय समय मे सजा से रुकेंगे महिलाओं के प्रति अपराध
फांसी के कानून से नहीं तय समय मे सजा से रुकेंगे महिलाओं के प्रति अपराध

माला दीक्षित, नई दिल्ली। दिल्ली महिला आयोग ने निर्भया की मां की अर्जी पर तिहाड़ प्रशासन को नोटिस जारी कर निर्भया के हत्यारों को फांसी देने में हो रही देरी पर जवाब मांगा है। ये घटना इशारा करती है कि पीडि़त को कितनी बेसब्री से न्याय का इंतजार होता है। महिलाओं के प्रति अपराधों पर लगाम लगाने और अपराध के प्रति भय पैदा करने के लिए हाल ही में दुष्कर्म के अपराध में सजा सख्त की गई है। बच्चियों से दुष्कर्म में मौत की सजा की गई है। कई राज्यो की अदालतों से दुष्कर्मियों को फांसी हुई है, लेकिन क्या इससे अपराध पर अंकुश लग रहा है। पांच साल से बेटी के हत्यारों को फांसी दिये जाने का इंतजार कर रही निर्भया की मां की मानें तो नहीं। उनका कहना है कि जबतक सजा का समय बाधित क्रियान्वयन तय नहीं होगा तब तक अपराध के प्रति भय नहीं पैदा होगा और इसके बगैर अपराध पर अंकुश नहीं लग सकता।

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अदालत से फांसी की सजा सुनाए जाने और फांसी की सजा पर क्रियान्वयन के आंकड़े उनकी पीड़ा की तस्दीक करते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल देश की अदालतों ने कुल 109 अपराधियों को फांसी की सजा सुनाई जिसमें 51 को हत्या और 43 को दुष्कर्म और हत्या के जुर्म में मौत की सजा दी गई थी, लेकिन पिछले साल एक भी व्यक्ति फांसी पर नहीं चढ़ा। देश में आखिरी फांसी 2015 में मुंबई बम धमाकों के दोषी याकूब मेमन को हुई थी। जबकि दुष्कर्म और हत्या के जुर्म में 2004 में धनंजय चटर्जी के बाद किसी को फांसी नहीं हुई।

ऐसा नहीं है कि सरकार इस बात से वाकिफ नहीं है कि सिर्फ सजा सख्त करने से काम नहीं चलेगा बल्कि दोषी को तय समय मे सजा दिया जाना भी अपराध पर अंकुश के लिए जरूरी है। इसीलिए सरकार ने महिलाओं से यौन अपराध में सख्त सजा और छोटी बच्चियों से दुष्कर्म में फांसी का प्रावधान करने के साथ ही तय समय में मुकदमें की जांच और निस्तारण की सीमा तय की।

क्रिमिनल ला संशोधन अधिनियम 2018 में सख्त सजा के साथ ही मामले की जांच दो महीने में पूरी करने और छह महीने में अपील निपटाने की बात है। हालांकि न्यायपालिका में खाली पड़े पदों और ढांचागत संसाधनों की कमी को देखते हुए यह कितना व्यावहारिक है ये बात निर्भया केस से जानी जा सकती है। निर्भया कांड एक ऐसी घटना थी जिससे पूरा देश सिहर गया था। जिसके बाद कानून में संशोधन हुआ।

निर्भया कांड 16 दिसंबर 2012 में हुआ था। करीब छह साल होने वाले हैं, लेकिन अभी भी निर्भया का परिवार सजा के क्रियान्वयन की बाट जोह रहा है। फास्ट ट्रैक कोर्ट ने 2013 में और हाईकोर्ट ने मार्च 2014 में चारों दोषियों को मृत्युदंड दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट से फैसला आने में तीन साल लग गए। 5 मई 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने भी चारों की फांसी सही ठहरायी फिर पुनर्विचार याचिका इसके बाद 14 महीने में निपटी जिस पर गत जुलाई में फैसला आया। बात यहीं खतम नहीं होती दोषियों के पास क्यूरेटिव और दया याचिका का विकल्प अभी बचा है। नियम है कि अर्जी किसी भी स्तर पर लंबित रहने तक दोषियों को फांसी नहीं दी जा सकती।

जनवरी 1982 में दुष्कर्म और हत्या के जुर्म में फांसी पर चढ़ाए गए रंगा बिल्ला का मुकदमा लड़ने वाले सुप्रीम कोर्ट के वकील डीके गर्ग कहते हैं कि ये सही है कि तय समय में सजा से ही अपराध के प्रति भय पैदा होगा। इसके लिए जरूरी है कि दुष्कर्म के मामलों की सुनवाई विशेष अदालतों में हो और तय समय में ट्रायल निपटे। अपील पर सुनवाई के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी विशेष पीठें हों और समयसीमा तय हो। इसके अलावा राज्यपाल और राष्ट्रपति के यहां दया याचिका की भी समयसीमा होनी चाहिए जब ऐसा तंत्र बनेगा तभी तय समय में सजा होगी।

फांसी की सजा अपराध रोकने में सक्षम नहीं है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के बाद बहुत कम मामलों मे ही फांसी होती है। अपराध के प्रति भय तभी पैदा होगा जबकि दोषी को तय समय में निश्चित सजा मिले - ज्ञानंत सिंह सुप्रीम कोर्ट वकील


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