सीबीआई की साख पर उठे सवालों ने की है बड़ी जांच एजेंसी की किरकिरी
भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करने वालों पर ही जब भ्रष्ट होने के आरोप लगें तो वाकई में हालात गंभीर कहे जा सकते हैं। हालांकि निष्पक्ष जांच के जरिये इस संस्था की साख को बचाए रखा जा सकता है।
अवधेश कुमार। सीबीआइ के शीर्ष अधिकारियों के बीच मचा घमासान गंभीर चिंता का विषय है। सीबीआइ के इतिहास का यह पहला अवसर है जब दूसरे स्थान के शीर्ष अधिकारी विशेष निदेशक राकेश अस्थाना पर घूस लेने की प्राथमिकी निदेशक की पहल पर दर्ज की गई है। हालांकि इसके पहले भी सीबीआइ के अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे हैं, किंतु अभी तक इतने बड़े अधिकारी पर प्राथमिकी दर्ज नहीं हुई थी। हालिया दर्ज प्राथमिकी के अनुसार तेलंगाना निवासी कारोबारी सतीश बाबू सना ने मांस कारोबारी मोईन कुरैशी मामले से अपनी मुक्ति के लिए सीबीआइ के विशेष निदेशक को 2.95 करोड़ रुपये दिए। इसमें राकेश अस्थाना के अलावा उपाधीक्षक देवेंद्र कुमार एवं कारोबरी सोमेश प्रसाद, मनोज प्रसाद और अन्य कुछ अज्ञात लोगों के नाम शामिल हैं। हालांकि सना ने यह नहीं बताया है कि कभी उसकी राकेश अस्थाना से मुलाकात या फोन पर बात हुई या उसने सीधे उनको रुपये दिए।
उसका आरोप है कि पांच करोड़ की बात हुई थी जिसमें शेष राशि की व्यवस्था करने में देरी होने के कारण उसके खिलाफ लुक आउट नोटिस जारी हुआ, अपने बेटे का दाखिला कराने के लिए परिवार के साथ फ्रांस जाते समय उसे हैदराबाद हवाई अड्डे पर रोक लिया गया। सतीश सना की बात मानी जाए तो सीबीआइ के उपाधीक्षक देवेंद्र कुमार ने नौ अक्टूबर 2017 से उसे नोटिस भेजना शुरू किया था। बतौर सतीश सोमेश ने अपने मोबाइल के व्हॉट्सएप की डीपी दिखाया जो राकेश अस्थाना का था। उसने सोमेश को एक करोड़ दे दिए।
सोमेश के कहने पर सुनील मित्तल को 12 दिसंबर 2017 को दिल्ली में 1.95 करोड़ दिए गए थे। सीबीआइ का दावा है कि बिचौलिए मनोज प्रसाद की 16 अक्टूबर को गिरफ्तारी के बाद उसके भाई सोमेश ने कई फोन किए थे। सीबीआइ कह रही है कि अस्थाना और खुफिया विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी के बीच 17 अक्टूबर को चार बार फोन पर बात हुई। कई व्हॉट्सएप संदेशों को भी सुबूत के तौर पर रखा गया है। सना ने यह भी दावा किया कि सोमेश ने उसे बताया था कि उसका आइपीएस अधिकारी सामंत कुमार गोयल से भी संपर्क है जो रॉ के विशेष निदेशक हैं। इसमें गोयल का नाम भी दर्ज है, लेकिन अभियुक्त नहीं बनाया गया है।
कहा जा सकता है कि सतीश सना ने रुपये दिए हैं पर किसके पास पहुंचे यह कहना मुश्किल है। कुरैशी के खिलाफ जांच की कमान अस्थाना के हाथ है। उसकी जांच प्रत्यर्पण निदेशालय के हाथों भी है। राकेश अस्थाना ने 24 अगस्त को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त व कैबिनेट सचिव को पत्र लिखकर आशंका जाहिर की थी उन्हें फंसाने का षड्यंत्र किया जा रहा है। अस्थाना ने स्वयं उसी सना के बयान के आधार पर दूसरे पत्र में आलोक वर्मा पर दो करोड़ रुपये घूस लेने का आरोप लगाया।
सतीश सना ने बताया कि वह एक नेता से मिला जिसने वर्मा से मुलाकात करने के बाद उसे आश्वासन दिया कि उसे क्लीनचिट दे दी जाएगी। आलोक वर्मा निदेशक हैं लिहाजा अस्थाना के किसी निर्णय को वह रोक सकते हैं। अस्थाना ने सीवीसी को लिखा कि वह सना से पूछताछ करना चाहते हैं। 20 सितंबर को निदेशक को प्रस्ताव भेजा गया था। उन्होंने 24 सितंबर को उसे अभियोजन निदेशक के पास भेजने का निर्देश दिया। अभियोजन निदेशक ने रिकॉर्ड में मौजूद सभी सबूत मांगे। अस्थाना ने कहा कि इस फाइल को जवाब के साथ सीबीआइ निदेशक के समक्ष रखी गई, लेकिन अब तक नहीं लौटी है।
दो तरह की बातें निकलती हैं। अस्थाना एवं अन्य पर दर्ज प्राथमिकी व वर्मा के खिलाफ अस्थाना के आरोप दोनों सतीश सना के बयान के ही आधार पर हैं। दोनों पक्षों ने सना को ही एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया। यहां कई प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। अगर अस्थाना ने घूस लिया तो उनकी टीम ने ही सना के खिलाफ लुकआउट सकरुलर क्यों खोला? सना को गिरफ्तार कर पूछताछ करने की अनुमति क्यों मांगी? निदेशक ने इसकी अनुमति क्यों नहीं दी? कैबिनेट सचिव एवं सीवीसी को पत्र में वर्मा पर दो करोड़ घूस लेने का आरोप क्यों लगाया?
इस खींचतान के बीच लंबे समय से सीबीआइ में अनेक जांच के कार्य पेंडिंग हैं। अस्थाना कई प्रमुख मामलों की जांच की निगरानी कर रहे हैं। इसमें अगस्ता वेस्टलैंड चॉपर घोटाला, विजय माल्या कर्ज धोखाधड़ी, लालू यादव का आइआरसीटीसी घोटाला आदि मामले शामिल हैं। अस्थाना ने आलोक वर्मा पर लालू से जुड़ी जांच में हस्तक्षेप का आरोप लगाया था तो निदेशक ने बयान जारी करवा दिया कि विशेष निदेशक खुद आधा दर्जन मामलों में आरोपों का सामना कर रहे हैं।
इस घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि देश भले निष्पक्ष जांच के लिए सीबीआइ की ओर देखता हो, लेकिन वहां हालात अच्छे नहीं हैं। नौ मई 2013 को उच्चतम न्यायालय ने यूपीए सरकार के दौरान सीबीआइ को ‘पिंजड़े का तोता’ कहते हुए इसे मुक्त करने की आवश्यकता जताई थी। उसके बाद निदेशक की नियुक्ति को ज्यादा पारदर्शी एवं लोकतांत्रिक बनाया गया, उसके वित्तीय अधिकार बढ़ाए गए, किंतु स्थिति जितनी बदलनी चाहिए नहीं बदली। अब यह विचार करना ही होगा कि आखिर क्या किया जाए कि यह शीर्ष जांच एजेंसी वाकई पेशेवर तरीके से काम कर सके। सीबीआइ के अंदर लड़ाई चरम पर थी जो इस मामले से सामने आ गई है।
अंदर और भी ऐसा बहुत कुछ होगा जिसकी जानकारी हमको आपको नहीं है। पता नहीं इतने दिनों से सब कुछ होते रहने के बावजूद सरकार ने इसमें हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? राकेश अस्थाना गुजरात कैडर के अधिकारी हैं जिन्हें सीबीआइ में निदेशक बनाने की योजना से लाया गया था। कई कारणों से यह नहीं हो पाया। बहरहाल प्रधानमंत्री ने इसमें हस्तक्षेप किया है तो उम्मीद करनी चाहिए कि कुछ बेहतर होगा। किंतु जो आरोप लगाए गए हैं उनकी निष्पक्ष जांच अनिवार्य है। इससे सीबीआइ में जड़ जमा चुकी गुटबाजी, भ्रष्टाचार तथा अधिकारियों के बिचौलियों से संबंधों का पूरा तंत्र सामने आ सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)