जानिए- मायावती ने क्यों लिया कड़ा फैसला, 2019 के आम चुनाव में क्या होगा असर
विपक्षी दलों का महागठबंधन यदि आकार नहीं ले पा रहा है या अपनी विश्वसनीयता कायम नहीं कर पा रहा है तो इसके लिए उसके नेता ही जिम्मेदार हैं।
नई दिल्ली (जेएनएन)। बसपा प्रमुख मायावती ने छत्तीसगढ़ के बाद मध्य प्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस के साथ गठबंधन न करने का एलान कर भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने की विपक्षी दलों की उम्मीदों पर पानी फेरने का ही काम किया है। मायावती का यह फैसला कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए किसी झटके से कम नहीं, जो भाजपा विरोध के नाम पर पूरे देश में विपक्षी दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं। बसपा के इस फैसले के बाद अगले आम चुनाव के पहले भाजपा और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साझा चुनौती देने की विपक्षी दलों की कोशिश के कामयाब होने के आसार और कम दिखने लगे हैं।
इसके लिए राहुल गांधी सीधे जिम्मेदार
विपक्षी दलों का महागठबंधन यदि आकार नहीं ले पा रहा है या अपनी विश्वसनीयता कायम नहीं कर पा रहा है तो इसके लिए उसके नेता ही जिम्मेदार हैं। विपक्षी नेता जिस महागठबंधन की बात कर रहे हैं उसने अब तक न तो कोई सार्थक एजेंडा सामने रखा है और न ही यह स्पष्ट हो सका है कि ऐसे किसी गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा? सबसे बड़ी समस्या तो इस गठबंधन का नेतृत्व करने की इच्छा रखने वाले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ओर से खड़ी की जा रही है। वह न तो अपने दल को कोई नीतिगत दिशा दे पा रहे हैं और न ही अन्य विपक्षी दलों को। किसी विपक्षी नेता की ओर से सरकार की आलोचना और निंदा तो समझ में आती है, लेकिन निराशाजनक यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष की ओर से कोई वैकल्पिक विचार पेश नहीं किया जा रहा है।
कांग्रेस नेताओं पर अहंकारी होने का आरोप
बसपा ने मध्य प्रदेश और राजस्थान में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा करते हुए जिस तरह कांग्रेस नेताओं पर अहंकारी होने का आरोप लगाया उससे विपक्ष के महागठबंधन का नेतृत्व करने की कांग्रेस की क्षमता पर नए सिरे से सवाल खड़े हो गए हैं। बेहतर हो कि कांग्रेस नेतृत्व विपक्षी दलों की एकजुटता की कोशिश करने से पहले इस पर विचार करे कि क्षेत्रीय दल उसका नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं? यह ठीक है कि कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, लेकिन एक के बाद एक राज्यों में उसका जनाधार जिस तरह सिमटता जा रहा है उससे वह इस स्थिति में नहीं रह गई है कि उसके नेतृत्व को सभी दल अपने आप स्वीकार कर लें।
इससे पहले भी कई बार मायावती ने लिया है एेसा फैसला
जहां तक मायावती की बात है तो यह पहली बार नहीं है जब उन्होंने किसी दल से गठबंधन के संकेत देकर अपने कदम पीछे खींचे हों या किसी गठबंधन में शामिल होने के बाद बाहर आई हों। उनकी राजनीति ही इसी तरह होती रही है और वह बसपा के राजनीतिक हित को सर्वोच्च प्राथमिकता देती रही हैं। फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपने मौजूदा रुख पर आगे भी कायम रहेंगी। उनके जैसे राजनीतिक तौर-तरीके रहे हैं उसे देखते हुए इस बारे में कुछ भी कहना सही नहीं होगा कि वह भविष्य में, खासकर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में क्या फैसला लेंगी, लेकिन इतना अवश्य है कि तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव के संदर्भ में उनके निर्णय के बाद कांग्रेस को अपनी रीति-नीति और तौर-तरीकों पर नए सिरे से विचार करना होगा।