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    अब पश्चिम बंगाल पर टिकी हैं अमित शाह की नजरें, दिलचस्‍प होने वाली है यहां की लड़ाई

    By Kamal VermaEdited By:
    Updated: Tue, 14 Aug 2018 06:27 AM (IST)

    यूपी में विधानसभा चुनाव साहित कई अन्य राज्यों में मिली प्रचंड जीत के बाद अप्रैल 2017 में ओडिशा में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में अमित शाह का यह बयान उस समय सुर्खियों में छाया रहा।

    अब पश्चिम बंगाल पर टिकी हैं अमित शाह की नजरें, दिलचस्‍प होने वाली है यहां की लड़ाई

    शिवानंद द्विवेदी। पिछले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव साहित कई अन्य राज्यों में मिली प्रचंड जीत के बाद अप्रैल 2017 में ओडिशा में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में अमित शाह ने एक बयान दिया था, जो उस समय सुर्खियों में छाया रहा। भाजपा कार्यकर्ताओं से उस समय अमित शाह ने कहा था कि यह जीत बड़ी है, लेकिन यह भाजपा का स्वर्णकाल नहीं है। उन्होंने कहा कि भाजपा का स्वर्णकाल तब आयेगा जब वह पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में सत्ता में आएगी। इस तथ्य से ज्यादातर लोग सहमत होंगे कि अमित शाह अगर कुछ बोलते हैं तो उसके पीछे उनकी ठोस रणनीति होती है। भाजपा अध्यक्ष के उस बयान को पश्चिम बंगाल की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों के केंद्र में रखकर समझने की जरूरत है।

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    पश्चिम बंगाल की राजनीति
    पश्चिम बंगाल की राजनीति में गत एक डेढ़ वर्ष में सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया है कि सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के सामने सर्वाधिक मुखर विपक्ष की भूमिका में भाजपा खुद को स्थापित करने में सफल होती दिख रही है। परिवर्तन की यह आहट पश्चिम बंगाल की राजनीति में किस तरह का बदलाव लाने जा रही है इसका सटीक आकलन करना अभी थोड़ा कठिन अवश्य है, किंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा वहां सर्वाधिक मुखर विपक्ष बनती जा रही है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में भाजपा की भूमिका प्रभावी दल के रूप में 2014 के आम चुनाव से पहले नहीं मानी जाती थी। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बंगाल से न केवल दो लोकसभा सीटों पर जीत मिली बल्कि 17 फीसद से ज्यादा वोट हासिल हुए। इसके बावजूद भाजपा को चौथे पायदान की पार्टी ही माना गया।

    ममता बनर्जी का बंगाल की सत्ता पर कब्जा
    दशकों के कम्युनिस्ट शासन को उखाड़कर ममता बनर्जी ने बंगाल की सत्ता पर कब्जा किया, लिहाजा उनके प्रथम राजनीतिक विरोधी कम्युनिस्ट बने रहे। बंगाल की राजनीति में कांग्रेस लंबे समय से सत्ता से बाहर थी और तृणमूल कांग्रेस के उभार के बाद तो तीसरे पायदान पर खिसक गयी थी। इसके पीछे मूल वजह कांग्रेस की अवसरवादी और अस्थिर राजनीति रही। अगर देखा जाए तो गठबंधन की सियासत में कांग्रेस कभी तृणमूल तो कभी वाम दलों के साथ खड़ी नजर आई। साल 2011 के बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस यूपीए का हिस्सा थी, लिहाजा वह चुनाव कांग्रेस के साथ गठबंधन में लड़ी। 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद जब यूपीए की सरकार केंद्र में नहीं रही और 2016 में बंगाल विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस कम्युनिस्ट पार्टी के साथ खड़ी नजर आई। हालांकि इन चुनावों में कम्युनिस्ट-कांग्रेस गठबंधन को हार का सामना करना पड़ा।

    सांगठनिक क्षमता को मजबूत करने में लगी भाजपा  
    कांग्रेस की कभी वाम तो कभी तृणमूल की इस नीति ने बंगाल में उसकी विश्वसनीयता और जनाधार को और कम कर दिया। इस बीच भाजपा अपनी सांगठनिक क्षमता को मजबूत करने में लगी थी। 2014 के आम चुनावों में भाजपा को लगभग 87 लाख मतदाताओं ने वोट दिया था। अमित शाह को यह समझने में देर नहीं लगी कि बंगाल की सियासी जमीन के भीतर वहां के सत्ताधारी दल के खिलाफ कुछ उथल-पुथल चल रही है, जिसे भाजपा के पक्ष में मोड़ने की जरूरत है। बंगाल में चौथे पायदान की पार्टी मानी जाने वाली भाजपा के लिए पहला महत्वपूर्ण कार्य था संघर्ष और राजनीतिक आंदोलन के माध्यम से बंगाल की राजनीति में विपक्ष की जगह पर कब्जा करना। इसकी शुरुआत अमित शाह ने 25 अप्रैल 2017 को नक्सलबाड़ी से कर दी थी। अपने बूथ प्रवास के दौरान शाह तीन दिनों तक बंगाल में रहे और नक्सलबाड़ी से उन्होंने बूथ संपर्क शुरू किया। इस प्रवास में उन्होंने संगठन के पदाधिकारी, कार्यकर्ता, बूथ विस्तारक, बंगाल के पत्रकार, प्रबुद्ध वर्ग साहित अनेक लोगों से संपर्क किया।

    चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश 
    राज्य में हाल ही में हुए पंचायत चुनावों में जिस ढंग से पश्चिम बंगाल की सरकार ने चुनाव को प्रभावित करने और हिंसा को बढ़ावा देने का अपनी ओर से भरपूर प्रयास किया, उससे इस धारणा को और बल मिला कि बंगाल में भाजपा के बढ़ते प्रसार और प्रभाव ने ममता की चिंता बढ़ा दी है। बंगाल में हुए हाल के इन चुनावों में जिस ढंग से सत्ताधारी दल तृणमूल कांग्रेस ने धन-बल और हिंसा के सहारे विरोधी दलों को चुनाव में हिस्सा लेने से रोकने की कोशिश की, उससे यह पता चलता है कि ममता बनर्जी भी यह स्वीकार कर चुकी हैं कि अब उनकी लड़ाई भाजपा से है। इस चुनाव को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी आश्चर्य व्यक्त किया था। इन सबके बावजूद जब चुनाव परिणाम आये तो भारतीय जनता पार्टी बंगाल में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। भाजपा ने कम्युनिस्ट पार्टी को तीसरे पायदान पर धकेल दिया। इसी साल फरवरी में नोयापाड़ा विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा दूसरे नंबर की पार्टी रही, जबकि कांग्रेस चौथे पायदान पर खिसक गई।

    लोकसभा चुनाव में बचे कुछ महीने
    अब लोकसभा चुनाव में कुछ महीने ही बचे हैं। इन सबके बीच भाजपा अध्यक्ष अमित शाह लगातार यह बोलते नजर आ रहे हैं कि 2019 में बंगाल से भाजपा को 22 से ज्यादा सीटों पर जीत मिलने जा रही है। शाह के दावे में कितनी सच्चाई है यह तो परिणामों से ही पता चलेगा लेकिन उनकी कार्यशैली पर संदेह नहीं किया जा सकता है। अगर शाह ने 22 सीटों का लक्ष्य रखा है तो इसकी रणनीति भी उन्होंने पुख्ता तरीके से तैयार की होगी। गत डेढ़ महीने में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दो बार बंगाल का दौरा कर चुके हैं। एक इंटरव्यू में तो वे यहां तक कह चुके हैं कि वे महीने के तीन दिन पश्चिम बंगाल में रहने का मन बना रहे हैं। इसलिए लक्ष्यभेदी रणनीतिकार अमित शाह की नजरें यदि बंगाल में ममता के दुर्ग पर हैं तो यह राजनीतिक लड़ाई और रोचक होने वाली है। मुद्दों की समझ रखने वाले जनता की नब्ज को टटोलने और बिना देर किए सटीक निर्णय करने वाले अमित शाह का बंगाल पर फोकस और ममता बनर्जी की बौखलाहट इस बात का संकेत है कि बंगाल में तृणमूल की सियासी दीवार की नींव दरकने लगी है।

    (फेलो डॉ. श्यामा प्रसाद मळ्खर्जी रिसर्च फाउंडेशन)