ग्यारह वर्षों में नेपाल में बदल चुके हैं 10 प्रधानमंत्री, रुक गया है विकास
2015 में नए संविधान के खिलाफ मधेसियों द्वारा की गई नाकेबंदी के कारण दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं की आपूर्ति भी बाधित हुई थी।
पवन चौरसिया
नेपाल में वामपंथी गठबंधन की इस ऐतिहासिक जीत के पीछे तीन महत्वपूर्ण कारण माने जा रहे हैं। भले ही 1990 में नेपाल में संवैधानिक लोकतंत्र की स्थापना हुई, लेकिन पिछले 27 सालों में नेपाल में भारी राजनीतिक अस्थिरता देखने को मिली है। 2006 में गृहयुद्ध समाप्त होने के बाद से नेपाल 10 प्रधानमंत्री देख चुका है। इसी कारण वहां विकास प्रक्रिया बिल्कुल कमजोर पड़ गई। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए वामपंथी गठबंधन ने अपने घोषणापत्र में भी ‘समृद्धि के लिए स्थिरता’ का नारा दिया था, जिसको नेपाली मतदाताओं ने हाथों-हाथ लिया है। चुनाव परिणामों को प्रभावित करने वाला दूसरा कारण है नेपाल में ‘भारत-विरोध’ की राजनीति का प्रभाव।
2015 में नए संविधान के खिलाफ मधेसियों द्वारा की गई नाकेबंदी के कारण दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं की आपूर्ति भी बाधित हुई थी जिससे नेपाली जनमानस में संदेश गया कि यह भारत की ओर से की गई ‘अघोषित’ नाकाबंदी थी। हालांकि भारत सरकार ने इस आरोप का पूर्णरूप से खंडन किया था, लेकिन हालिया चुनाव में ऐसे प्रकरणों को चर्चा में लाकर वामपंथी दलों ने भरपूर लाभ उठाया। तीसरा महत्वपूर्ण कारण है केपी ओली की विदेश-नीति। ओली ने अपने कार्यकाल में भारत के ऊपर निर्भरता कम करने के लिए चीन के साथ कई समझौते किए। हालांकि अभी तक इसका नेपाल को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ है, लेकिन इससे नेपाली मतदाताओं में यह संदेश गया कि ओली राष्ट्रहित में कूटनीतिक संबंधों को बड़ी चतुराई से नियंत्रित कर सकते हैं।
ऐसे में नेपाल में वामपंथी सरकार बनने के बाद चीन का प्रभाव और वर्चस्व दोनों बढ़ने की संभावना है। वामपंथी सरकार आने से न सिर्फ मंद पड़े चीन प्रायोजित बीआरआइ (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव) को गति मिलेगी, बल्कि बूढ़ी गंडकी हाइड्रोपॉवर परियोजना के लिए भी काम शुरू होगा, जिसे मौजूदा सरकार ने हाल ही में रद कर दिया था। इसके अलावा चीन और नेपाल के बीच रेल लाइन बिछाने की भी योजना है। भारत को लेकर प्रचंड भले ही थोड़े नर्म रहे हैं, लेकिन ओली का स्वाभाव काफी सख्त रहा है। ओली ने अपने चुनावी रैलियों में भी भारत पर हमला बोला है।
वहीं वामपंथी पार्टियों ने तो अपने चुनावी घोषणापत्रों में भी नेपाल-भारत के बीच 1950 में बनी शांति और मैत्री संधि को खत्म कर उसे नया प्रारूप देने की बात की है। भारत के लिए राहत की बात इतनी है कि भले ही सीधे चुनाव में नेपाली कांग्रेस तीसरे नंबर पर खिसक गई हो, लेकिन पहली बार 21 मधेशी नेता भी संसद में पहुंच रहे हैं। ऐसे में एक मजबूत विपक्ष वामपंथी दलों को मनमानी करने से रोकने में सफल हो सकता है। वैसे भी भारत-नेपाल संबंध न सिर्फ सरकारों के बीच का, बल्कि आम जनता के आपसी संबंधों का भी मामला है। नेपाल की राजनीति, समाज और धर्म में भारत अहम कारक है और इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
समस्या यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी ‘पड़ोसी को प्राथमिकता’ नीति को आगे बढ़ाने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन अभी भी भारतीय कूटनीतिक समुदाय नेपाल को पारंपरिक दृष्टि से देखता है। समय आ गया है कि भारत अपनी नेपाल नीति में व्यावहारिक परिवर्तन करे, क्योंकि अब नेपाल के पास भारत के विकल्प के रूप में महत्वाकांक्षी चीन उपलब्ध है। इस चुनाव से भारत-नेपाल के संबंधों के अलावा दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में भी दीर्घकालिक परिवर्तन देखने को मिल सकता है। चीन नेपाल का प्रयोग करके दक्षिण एशिया में भारत को घेरने का प्रयास कर सकता है और चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति और वर्चस्व को देखकर श्रीलंका, म्यांमार और अन्य पड़ोसी भी चीन की तरफ अधिक झुकाव दिखा सकते हैं।
(लेखक जेएनयू में शोधार्थी हैं)
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